अपनी अनूठी और प्रसिद्ध संस्कृति लिए शहर लखनऊ इन दिनों रंग त्यौहार होली की अगुआनी करने लगा है।आकाशवाणी और दूरदर्शन के स्टूडियोज़ में इन दिनों होली के ख़ास कार्यक्रम निर्माण के अपने अंतिम चरण में हैं।कुछेक कार्यक्रमों में इसके प्रसारण की शुरुआत भी हो चली है।
लखनऊ में पहाड़ के लोगों की भी अच्छी खासी तादाद है और वे होली को अभी भी अपनी परम्परागत शैली में मनाते हैंं। बैठी होलियां भी खूब देखी-सुनीं जाने लगी हैं। शिव रात्रि के आस-पास से ये बैठकें भी शुरू हो चली हैं। चार-छह अच्छे गायकों की अपनी टोलियां होती हैं जिन्हें होली गवाने के शौकीन अपने घर बुलाते हैं, एक-एक रात की बाकायदा बुकिंग होती है, एकादशी से छलड़ी के बीच ये गायक एक रात में दो-दो तीन-तीन घरों में भी निमंत्रित होते हैं, चार-छह लोग भी तबला-हारमोनियम लेकर बैठ जाते हैं और गायन शुरू हो जाता है। आम तौर पर गायकों से ज्यादा श्रोता होते हैं, खड़ी यानी लोक होलियों की बैठकें जहां अब दुर्लभ हैं वहीं इन बैठी यानी शास्त्रीय होलियों का सिलसिला बना हुआ है, लखनऊ के विभिन्न मुहल्लों में ऐसी बैठकें खूब होती हैं, अच्छी बात यह कि नई पीढ़ी ने भी इस परम्परा को आगे बढ़ाया है। इन होलियों को सुनने का अलग आनंद है। 'बरसत रंग फुहार, सखी बरसाने चलो, कांधे अबीर-गुलाल की झोली, कर कंचन पिचकारी. ग्वाल-बाल सब श्याम संग, राधे अंगना के पार, कर सोलह श्रृंगार, सखी बरसाने चलो..' और 'चटक-मटक रसवंती डगर चली, भरी भीड़ दई मोरी बैंया झटक…' या श्रीधर जब डूब कर सुनाते हैं – 'कैसी धूम मचाई बिरज में, आज ग्वालन के संग, तेरो री ललन घनश्याम…' तो कमरे में अद्भुत वातावरण बन जाता है । बैठी होली की शास्त्रीयता में छेडखानी, चुटकियां और श्रृंगार के अतिरेक कम नहीं होते। बैठी होली की ये बैठकें जम जाएं तो भोर तक चलती हैं और राग भैरवी के साथ इनका समापन होता है।बैठी होली की एक खासियत उसकी ताल-मात्राएं भी हैं. लखनऊ के कई अच्छे तबला वादक इन होली बैठकों में 'सम' पर गच्चा खा जाते रहे, अच्छी-खासी ताल पर चल रहा गायक अचानक दो अतिरिक्त मात्राओं की गलियों में कहां भटक कर सम पर लौटा, वह समझ ही नहीं पाता, चौदह की बजाय सोलह मात्राओं की यह ताल कुमाऊनी शास्त्रीय होलियों में कहां से आ गई, यह संगीत के विद्वान ही बता सकते हैं लेकिन लखनवी कुमाऊनियों ने यह विशेषता बचा रखी है। लखनऊ का शायद ही कोई मुहल्ला या कॉलोनी होगी जहां ड्राइंग रूम के सोफे-साफे किनारे खिसका कर भरी दोपहर कुमाऊंनी महिलाओं की होली बैठक न जमती हो. ढोल-मंजीरे की धमक-झमक के साथ परवान चढ़ती गायकी के बीच 'कॉमिकल इण्टरवल' की तरह स्वांग यानी ठेठर भी चल रहे होते हैं।
लखनऊ की पहाड़ी महिलाओं में होलियों के प्रति इतना ज्यादा उत्साह है कि उनकी बाकायदा मंडलियां तैयार हो गईं हैं।इन महफिलों का खान-पान भी चर्चा का विषय रहता है. किसी के आलू के गुटुक और भांगे की चटनी चर्चित है तो कोई लखनवी चाट का ठेला लगवा लेती हैं. गुझिया तो ठैरी ही, अपने हाथ की बनाई भी और बाजार से ब्राण्डेड वाली भी !
इनपुट-श्री नवीन जोशी की फेसबुक वाल से।
ब्लॉग रिपोर्टर :- श्री. प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी,लखनऊ
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