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लखनऊ में पिछले दिनों आपने महान अवधी कवि बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढ़ीस के क़िस्से पढ़े। आज बात अवधी के एक और बड़े कवि चंद्रभूषण त्रिवेदी उर्फ रमई काका की। पढ़ीस और वंशीधर शुक्ल के साथ रमई काका अवधी की उस अमर 'त्रयी' का हिस्सा हैं, जिनकी रचनात्मकता ने तुलसी और जायसी की अवधी को एक नई साहित्यिक समृद्धि प्रदान की। यूं अवधी की इस कद्दावर तिकड़ी के तीनों सदस्य बहुत लोकप्रिय रहे लेकिन सुनहरे दौर में आकाशवाणी लखनऊ के साथ सफल नाटककार और प्रस्तोता के बतौर लंबे जुड़ाव और अपने अद्वितीय हास्य-व्यंग्यबोध के चलते रमई काका की लोकप्रियता सचमुच अद्भुकत और असाधारण रही। रेडियो नाटकों का उनका हस्ताक्षर चरित्र 'बहिरे बाबा' तो इस कदर मशहूर रहा कि आज भी उत्तर भारत के पुराने लोगों में रमई काका का नाम भले ही सब न जानें लेकिन बहिरे बाबा सबको अब तक याद हैं। उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के रावतपुर गांव में 2 फरवरी 1915 जन्मे रमई काका कविता तो किशोरावस्था में ही लिखने लगे थे लेकिन उनकी प्रतिभा को सही मकाम 1941 में मिला, जब उन्होंने आकाशवाणी के कर्मचारी के बतौर लखनऊ को अपना निवास-स्थान बनाया। नौकरी के लिए गांव छोड़ने के बाद वे जिंदगीभर लखनऊ में ही रहे लेकिन इसके बावजूद उनकी कविताओं में गांव और कृषि प्रधान संस्कृति की मौजूदगी हमेशा बनी रही।

साठ के दशक का वाक़या है। आकाशवाणी के माध्यम से रमई काका के नाटक और कविताएं घर-घर पहुंच चुकी थीं। रमई काका लोकप्रियता के उस शिखर पर थे, जहां उनसे पहले कोई भी आधुनिक अवधी कवि नहीं पहुंचा था। उनकी देखादेखी बहुत से अवधी कवि न सिर्फ कविताओं में उनकी नकल करने लगे थे, बल्कि उन्हीं की देखादेखी नाम के आगे काका लगाने का फैशन भी चल पड़ा था। इसी दौर में लखीमपुर खीरी के एक कवि थे, जो काका के अंदाज में लिखने की कोशिश करते थे और अपनी कविताएं आकाशवाणी लखनऊ को भेजते थे। लेकिन बहुत कोशिशों के बाद भी उनकी कविताओं का रेडियो से प्रसारण संभव न हो पाया था। एक दिन उन्हें एक युक्ति सूझी, उन्होंने रमई काका की ही कुछ कविताएं अपने नाम से आकाशवाणी में भेज दीं। रमई काका की कविताएं उन दिनों बहुत लोकप्रिय थीं, सो संबंधित प्रोड्यूसर को शक हुआ कि ये कविताएं उनकी नहीं बल्कि रमई काका की लग रहीं हैं। चूंकि काका आकाशवाणी में ही काम करते थे इसलिए संशय की पुष्टि होते भी देर न लगी। अब प्रेषक को आकाशवाणी बुलाया गया, उन्हें फौरन पता चल गया कि चोरी पकड़ी गई। डर के मारे उनकी सिट्टी पिट्टी गुम। इस कदर घबराए कि बुखार चढ़ गया। फिर काफ़ी दिन गुज़रने के बाद जब तबीयत ठीक हो गई तो आकाशवाणी पहुंचे। ये सोचकर कि शायद मामला ठंडा हो चुका हो।
स्टेशन पहुंचकर उन्होंने केंद्रनिदेशक से घबराते हुए माफ़ी मांगी। केंद्र निदेशक महोदय ने उन्हे डांटते हुए माफ किया और कहा कि अब ऐसी भूल कभी नहीं होनी चाहिए। इसके तुरंत बाद वो डरते-डरते रमई काका से मिलने पहुंचे। केंद्र निदेशक से डांट खा चुके थे, इसलिए काका से मिलने में और घबरा रहे थे। मगर काका तो गांव की मिट्टी के बने थे। इतने प्यार और आत्मीयता से मिले, जैसे कुछ हुआ ही न हो। अपने जाने पहचाने अंदाज़ में मुस्कुराते हुए बोले-'प्रकाशित या प्रसारित कविताएं कहीं भेजोगे तो हमेशा पकड़े जाओगे। अगर मेरी ही कविताएं भेजनी थीं, तो मुझसे कह देते मैं चुपके से तुमको नई लिखके दे देता। सात जनम में न पकड़े जाते। ये सुनते ही वो कवि महोदय भी मुस्कुराने लगे और उनके साथ काका भी। रमई काका ने बड़े खुलूस के साथ उन्हें चाय नाश्ता करवा के रुखसत किया...

काका 1977 में आकाशवाणी से रिटायर हो गए लेकिन रेडियो से उनका जुड़ाव बना रहा। 18 अप्रैल 1982 को लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली।
हिमांशु बाजपेयी
स्रोत :- http://ift.tt/2txyQIF
द्वारा अग्रेषित :- श्री. झावेंद्र ध्रुव ,jhavendra.dhruw@gmail.com

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