लेट एटीज़ या अर्ली नाइंटीज़ के दौर की कोई एक रात. रात के दस बज रहे हैं. पूरा परिवार डिनर से फ़ारिग होकर सोने की तैयारी में है. दिनभर के तमाम कामों के शोर से निजात मिल गई है. कमरे में शाम से ही चल रहे रेडियो पर ध्यान देने की मोहलत मयस्सर हो पाई है. ऐसे फुरसती लम्हे में एक आवाज़ गूंजती है.
"ये है विविध भारती. अब आप सुनिए 'छायागीत'.
एक छोटा सा म्यूजिक पीस और उसके फ़ौरन बाद एक रौबदार आवाज़.
"छायागीत के सभी सुनने वालों को कमल शर्मा का नमस्कार. बर्फीले पहाड़ों पर जब चांद की सुराही से झरता है नूर, तो लगता है, जैसे बर्फ के गोलों पर फैला दी हो किसी ने रंगीन मीठी चाशनी. और कभी लगता है जैसे चांदनी पहाड़ियों पर लगा रही हो रोशनी का उबटन. किसी नटखट बच्चे की तरह हवा उड़ाती रहती है हिमकणों के फुग्गे. बर्फ की रज़ाई में दुबक जाता है पूरा गांव. नींद से जागता है तभी जब धूप खींच लेती है गिलाफ़."
अहा!
फिर शुरू होता है गाना,
'ठंडी हवा ये चांदनी सुहानी, ऐ मेरे दिल सुना कोई कहानी'.
भारतवर्ष में ऐसा शख्स ढूंढ पाना बहुत मुश्किल है जो एटीज़ या उससे पहले पैदा हुआ हो और ऊपर लिखे सीन से अंजान हो. गाना/प्रोग्राम में चेंज हो सकता है लेकिन विविध भारती से उसका रिश्ता न रहा हो ये नहीं हो सकता. आह विविध भारती! बरसों-बरस किताबों के बाद मनोरंजन का एकमात्र साधन! इकलौता ऐसा साधन जिस तक ख़ासो-आम हर एक की पहुंच थी. इस पीस को लिखने वाले की ज़िंदगी के न जाने कितने ही लम्हे विविध भारती और उस पर आने वाले ढेरों प्रोग्राम्स ने गुलज़ार कर रखे हैं. याद करने बैठूं तो कितना कुछ याद आ जाता है! इतना कुछ कि महज़ उनके बारे में सोचना भर पूरे वजूद को सनसनाहट से भर देता है. विविध भारती को याद करना बचपन के अनगिनत लम्हों को फिर से जी लेने जैसा है. मुझे साफ़ दिख रहा है वो स्टैंड जिस पर रेडियो रखा रहता था. वो रेडियो जिसका घर में आगमन वाला दिन किसी त्योहार से कम नहीं था.
अमीन सायानी, यूनुस खान, ममता सिंह, कमल शर्मा, रेणु बंसल, राजेंद्र त्रिपाठी, शहनाज़ अख्तरी, अमरकांत दुबे, निम्मी मिश्रा. ये सब महज़ नाम नहीं बल्कि हमारे बचपन को गुलज़ार करने वाले फ़रिश्ते हैं. इंटरनेट और फेसबुक के आगमन के बाद हम इनकी शक्लों से परिचित हो गए हैं लेकिन एक वो दौर भी था जब हमने इनको बिना देखे इनसे इश्क किया है. इनसे, इनकी आवाज़ से, इनके अंदाज़ेबयां से!
विविध भारती उस दौर में ज़िंदगी का अभिन्न अंग हुआ करता था. ज़माना आज जितना एडवांस्ड नहीं था. वांछित फ्रीक्वेंसी को रेडियो सही से पकड़ ही लेगा इसकी कोई गारंटी नहीं हुआ करती थी.
चर्र चर्र की आवाज़ निकालते रेडियो सेट को आड़ा-टेढ़ा करते हुए साफ़ आवाज़ सुनने की कोशिश करते रहने का अपना ही मज़ा था. उस ख़ास घड़ी का फ्रस्ट्रेशन तो याद करने पर अब भी महसूस होता है, जब आप शिद्दत से कुछ पसंदीदा सुनने की कोशिश में लगे हों और सिग्नल साथ ना दे रहा हो. कई बार तो रेडियो अजीब सी पोजीशन पर मुड़ा होता था जब वो ठीक सिग्नल पकड़ता था. ऐसे में उसी पोजीशन में उसे संभाले-संभाले पूरा गाना सुन लिया जाता. कितने ही प्रोग्राम ऐसे हैं जो उस वक़्त रूटीन में सुन लिए गए लेकिन आज बहुत याद आते हैं. एक नज़र कुछ चुनिंदा प्रोग्राम्स पर
#बिनाका गीतमाला: अब तो टीवी-रेडियो पर अनगिनत काउंटडाउन शोज आते हैं. उस वक़्त ये इकलौता था जिसमें टॉप पर कौन सा गीत रहेगा इसकी उत्सुकता लगी रहती थी. पहले ये रेडियो सिलोन पर आया करता था जो श्रीलंका से प्रसारित होता था. 1989 के बाद से ये विविध भारती पर आने लगा. अमीन सायानी के अंदाज़ेबयां का कायल पूरा हिन्दुस्तान तब भी था, आज भी है. उन्हें भुलाना नामुमकिन है. कौन सा गाना कितने 'पायदान' की छलांग लगाकर कहां से कहां पहुंचा ये वो बड़ा ही लुत्फ़ लेकर बताया करते थे. उस लम्हे का तो ख़ास तौर से इंतजार रहता था जब आख़िर में वो फुल ड्रामेटिक टोन में कहते थे, "बहनों-भाइयों, ये रहा संगीत सीढ़ी की चोटी का गीत." इस 'चोटी' पर चढ़े बैठे गीत के लिए हम भाई-बहन अंदाज़ें लगाया करते थे. हर बुधवार रात 8 से 9 रेडियो से चिपके रहना तय था. बिनाका गीतमाला बाद में बदलकर सिबाका गीतमाला हो गया था.
#जयमाला: भारतीय रेडियो के इतिहास में शायद इकलौता कार्यक्रम जो फौजी भाइयों के लिए समर्पित था. जहां गीतमाला हफ्ते में एक बार आती थी वहीं जयमाला रोज़ आता था. शाम सात बजे शार्प. फ़ौज के सैनिकों की रैंक्स के बारे में जितना जयमाला सुनकर सीखा उतना कहीं और से शायद ही इतनी सहजता से हो पाता उस उम्र में. सूबेदार, लांसनायक, सिपाही, हवलदार! अच्छी तरह याद है मुझे कि जयमाला में फौजी भाइयों के नाम सुनते वक़्त आंखों के सामने एक नज़ारा हमेशा तैरा करता था. फ़ौज की वर्दी में कोई आदमी बॉर्डर एरिया की किसी बैरक में बैठा ख़त लिख रहा है. जयमाला आज भी आता है. सुनते कितने लोग हैं नहीं पता. अब तो सैनिकों के पास भी फेसबुक है.
#छायागीत: अक्सर रेडियो प्रोग्राम्स में श्रोताओं की पसंद के या पॉपुलर सॉंग्स बजाए जाते थे. ये इकलौता प्रोग्राम था जिसमें अनाउंसर अपनी पसंद के गीत सुनाया करते. और उन गीतों से ज़्यादा दिलकश हुआ करती थी वो काव्यात्मक बातें जो पता नहीं कौन लिखता था! ऐसी मखमली शब्दावली में अनमोल अल्फ़ाज़ पेश किए जाते कि दिल झूम के रह जाता. एक टुकड़ा आप इस लेख के शुरुआत में ही पढ़ चुके हैं. कमल शर्मा और ममता सिंह मेरे फेवरेट थे. आज ममता सिंह फेसबुक पर लिस्ट में जुड़ी हैं. सोशल मीडिया ने करीब होने का मौक़ा दिया. लेकिन मेरी याद में ममता जी रेडियो-सखी के रूप में ही सुरक्षित रहेंगी.
#हवा-महल: 'हवा-महल' कहानियों को नाट्य रूप में पेश किया करता था. अक्सर विनोदी हुआ करती थी ये प्रस्तुति. धमाल हुआ करता था ये प्रोग्राम. अमरीश पुरी, ओम पुरी, असरानी जैसे बड़े कलाकारों ने हवा-महल में काम किया है. बचपन में बहुत क्रेज़ हुआ करता था हवा-महल का.
#संगीत-सरिता: ये सुबह साढ़े-सात बजे आया करता था. इस प्रोग्राम का सबसे बड़ा एहसान ये है भारतीय संगीतप्रेमियों पर कि इसने संगीत के ढेर सारे पहलुओं से जनता को वाकिफ़ कराने का काम कराया. एक बेसिक समझ को विकसित किया. इस कार्यक्रम में विशेषज्ञों को आमंत्रित कर के उनसे संगीत की बारीकियों पर चर्चा की जाती थी. किसी शास्त्रीय राग पर आधारित गानों को सुनाया जाता और उसी बहाने उस राग से श्रोताओं को पूरी तरह परिचित कराया जाता.
#हेल्लो फरमाइश: फोन का चलन भारत में बढ़ने के बाद इस प्रोग्राम का क्रेज़ देखने लायक था. लोग घंटों एंगेज लाइन से जूझा करते थे कि किसी तरह उनका फोन इस प्रोग्राम में लग जाए और पूरा देश उनकी आवाज़ सुने. देशभर के लोगों की फरमाइशें पूरा करता ये प्रोग्राम मेरे पसंदीदा प्रोग्राम्स में से है. न जाने कितनी बार कोशिशें की लेकिन कभी उस जीवटता को अपने अंदर पैदा न कर सका जिससे अनगिनत रेडियो के मतवालों के जोशोखरोश से पार पा सकूं. इन शॉर्ट, कभी न लगा अपना फोन.
#पिटारा: पिटारा मस्ती, एंटरटेनमेंट और जानकारी का पूरा पैकेज था. 'हेल्लो फरमाइश' पिटारा का ही हिस्सा था. इसमें रोज़ अलग-अलग प्रोग्राम पेश किए जाते. फ़िल्मी सितारों से मुलाक़ात 'सेल्युलाइड के सितारे', संगीत की दुनिया से दिग्गजों से मुलाक़ात 'सरगम के सितारे', सेहत से जुड़ा प्रोग्राम 'सेहतनामा', 'यूथ एक्सप्रेस' और 'हेल्लो फरमाइश'. क्या क्या याद करें!
मुझे तो पत्रावली भी बेहद पसंद था जिसमें हफ्तेभर के अपने कार्यक्रमों की प्रतिक्रया में आए दर्शकों के पत्रों को पढ़ के सुनाया जाता. ऐसे ही एक और पसंदीदा प्रोग्राम था 'आज के फ़नकार'. किसी एक मशहूर गायक, गीतकार, संगीतकार को केंद्र में रखकर उसकी रचनाएं, उसकी बातें पेश की जाती. कितने ही उद्घोषक ऐसे हैं जिनके नाम पर तब गौर नहीं किया, गौर किया हो तो अब याद नहीं लेकिन जिन्होंने हमारे बचपन को यादगार बनाने में कोई कसर न छोड़ी.
झुमरीतलैया
क्या सुनहरा दौर था वो जब झुमरीतलैया से आई गाने की फरमाइश के बिना विविध भारती का कोई प्रोग्राम मुमकिन ही नही था. लगता था जैसे वहां के लोगों का मेन काम फरमाइश करना ही है. बाकी नौकरी-वौकरी, कामकाज तो खाली वक्त में करते होंगे. ऐसा कोई फरमाइशी प्रोग्राम मुश्किल ही होता था जिसमें झुमरीतलैया से किसी की फरमाइश शामिल न हुई हो. उस वक़्त बहुत से लोगों को लगता था कि ये कोई फिक्शनल जगह है. वो तो बाद में, बहुत बाद में, पता चला कि ये झारखंड में कोई कस्बा है.
बदलाव की सुनामी के साक्षी हैं हम
हम उस दौर में बड़े हुए हैं जब बदलाव की रफ़्तार मानव इतिहास में शायद सबसे ज़्यादा थी.
हमारे सामने ही लैंडलाइन फ़ोन फले-फूले और एकदम से मोबाइल के हल्ले में लगभग अप्रासंगिक भी हो गए. तार-सेवा जैसी बेहद पुरानी सूचना-व्यवस्था देखते ही देखते ख़त्म हो गई. टेप-रिकॉर्डर से सीडी प्लेयर तक और वहां से होती हुई मेमोरी कार्ड्स और मोबाइल में घुसने तक संगीत की यात्रा धुंआधार स्पीड से हुई. पेजर जैसी क्रांति तो इतनी अल्पजीवी थी कि पेजर को छू कर देख चुके हम जैसे लोग तक आज शक करते हैं कि कभी कोई ऐसी भी प्रणाली थी. ख़त लिखना चलन से बाहर हो गया. अब लेटर्स सिर्फ ऑफिशियल होते हैं.
इन्टरनेट के आगमन के बाद दुनिया काबू में आ गई. संगीत की पूरी दुनिया खुल गई सबके लिए. अब जो चाहे इन्टरनेट पर सुन लो. ना सिग्नल का पचड़ा और ना ही पसंदीदा गाने के इंतजार में नापसंदीदा गीतों को सुनने का टॉर्चर. इस दौर के बाशिंदों को उस लगन, उस अटैचमेंट, उस लगाव की कल्पना करना मुश्किल होगा जो हमारी पीढ़ी ने जिया है.
यादों का अनमोल गलियारा
लिखने को तो इस पर एक पूरी किताब लिखी जा सकती है. तमाम नास्टैल्जिया पर ये रेडियो वाला नास्टैल्जिया भारी पड़ेगा.
कितना कुछ ऐसा है जिसका ज़िक्र छूट गया है. सबको समेटना मुमकिन भी नहीं. विविध-भारती को ज़िंदगी से निकाल दिया जाए तो बहुतों की ज़िंदगी के कैनवास का रंग फीका लगने लगेगा. ऐंवे ही नहीं जब तनु वेड्स मनु फ़िल्म की शुरुआत में रेडियो पर अनाउंसर गीत की फरमाइश करने वालों के नाम लेता है तो आपका तुरंत उस फ़िल्म से कनेक्शन जुड़ जाता है. शुक्रिया विविध भारती का और उसके ढेर सारे न्यूज़ रीडर्स, अनाउंसर्स का. एफएम चैनलों के खून पीने वाले आरजे लोगों को सुनता हूं तो ऐसा लगता है रेडियो के अंदर चिल्लाहट मचाने वाला कोई आला फिट कर दिया गया हो. वो ठहराव, वो शाइस्तगी, वो मिठास अब कहां! हवा हो गया सब!
विविध भारती आज भी आता है. लेकिन अब वो तमाम एफएम चैनलों के हल्ले में नज़रअंदाज़ हो जाता है. कुछ ही लोग हैं जो ख़ास तौर से विविध भारती को सुनते हैं. कसरत से सुनना उनके लिए भी पॉसिबल नहीं जब एंटरटेनमेंट के और भी ज़रिये मौजूद हो. दिल्ली में 100.10 पर आता है विविध भारती. सुनिएगा कभी. बाकी अपने-अपने शहर में खोज लो.
द्वारा अग्रेषित :- श्री.मितुल कन्सल