देश के तमाम परिजनों के शहीद बेटों ने कारगिल युद्ध में देश के लिए लहू बहाया था तो आकाशवाणी गोरखपुर ने भी उन सभी शहीदों की शौर्य गाथाओं को श्रोताओं तक पहुंचाने में अपना पसीना बहा दिया था।आकाशवाणी गोरखपुर में उन दिनों कार्यक्रम अधिकारी पद पर कार्यरत ब्लाग लेखक लिखते हैं....
"जी हां,वे मंजर अब भी अपनी आंखों के सामने हैं।
लगभग दो महीनों तक अपने देश की दुर्गम चोटी पर धोखे से कब्जा कर बैठे दुश्मन को भगाने के लिए अपनी सेना के सैनिक बेटों को लहू बहाना पड़ा था।वर्ष 1999में आज ही के दिन हमने वापस अपनी कारगिल की चोटी पर झंडा फहराया था।
लेकिन शहादत के लिए जो चिराग बुझ गये थे उनकी कहानी भी तो आगे की पीढ़ियों तक पहुंचानी ज़रुरी थी ताकि वे देश की आने वाली पीढ़ियों की हिम्मत और हौसला बन सकें..इसलिए हमने भी अपने दर्द ओ ग़म को दरकिनार करके प्रसारण की दुनियां में एक नया इतिहास रचा।आकाशवाणी गोरखपुर धन्य हो उठा इन शहीदों के लिए ढेर सारे कार्यक्रम बनाकर ।मुझे याद है पहली जुलाई 1999से महानिदेशक से प्राप्त निर्देश के अनुपालन में तत्कालीन के.नि.श्री प्रेम नारायण के अगुआई में विशेष प्रसारणों के लिए " कारगिल सेल" नामक एक प्रकोष्ठ बनाया गया था जिसमें आकाशवाणी कारगिल में अपनी सेवाएं दे चुके जनाब हसन अब्बास रिज़वी,सर्वेश दुबे,मोहसिना ख़ान,उदिता श्रीवास्तव और मैंनें मोर्चा संभाला।सेल गठन के कुछ ही घंटों बाद शाम पांच बजकर पांच मिनट पर प्रसारित होनेवाले युवा जगत कार्यक्रम में मैनें अपनी टीम के साथ "हिम्मत वतन की हमसे है"नामक रुपक प्रसारित करना शुरु कर दिया।कभी कभी तो लाइव भी प्रसारण करना पड़ा ।
उधर उर्दू प्रोग्राम में जनाब हसन अब्बास रिज़वी साहब ने "कारगिल की बातें"नाम से सिलसिलेवार प्रोग्राम देना शुरु कर दिया।
अपने श्री रवीन्द्र श्रीवास्तव उर्फ़ जुगानी भाई ने देस हमार को कारगिल मय बना दिया।"आख़िर कब तक "सिलसिलेवार लघु नाटिका के लपटन साहब(जुगानी भाई) जीवित हो उठे।
इन सभी का उद्देश्य था सीमा पर बहे लहू के प्रति देशवासियों के कृतज्ञता की अभिव्यक्ति और जन मानस तक उनकी शौर्य गाथाएं पहुंचाना।
साउंड ट्रैक से उतरती वह आवाज़ आज भी याद है..
"ऐ हवाओं , तूं सीमा पर डटे जवानों तक हमारा यह पैग़ाम पहुंचाओ कि हम नौजवान हर पल उनके साथ हैं..
...और ऐ दरिया ,तू अपने निर्मल जल से मातृभूमि की रक्षा करनेवाले सैनिकों के घाव धो दे.. "
उन दिनों गोरखपुर के समाचारपत्रों में भी इन कार्यक्रमों का उल्लेख होता रहा।कुछ कतरनें दे रहा हूं।
उधर भगवान मेरे परिजनों के लिए निजी रुप से कुछ अलग ही कार्यक्रम बना रहे थे।मेरे साले के बेटे विपुल मिश्रा ने आई.आई.टी.मुम्बई की पढ़ाई छोड़कर एयरफोर्स में मिग पायलट की सीट संभाली।ममेरे भाई एस.के.मिश्रा ने भी ग्राउण्ड पायलट के रुप में एयरफोर्स ज्वाइन कर लिया ।आज दोनों शीर्ष पद पर हैं।मेरा छोटा बेटा(शहीद लेफ्टिनेंट यश आदित्य)उन दिनों एयरफोर्स हाई स्कूल गोरखपुर में और बड़ा के वि.,गोरखपुर में इंटर में था। कारगिल युद्ध उन दोनों को भी आंदोलित कर रहा था..वे बेचैन हो उठते थे.. देश के लिए कुछ कर बैठने को।इंटर पास करते ही वर्ष 2002 में बड़े बेटे ने टेक्निकल इंट्री स्कीम में भारतीय सेना ज्वाइन कर लिया।आज वे EME में लेफ्टिनेंट कर्नल होकर देश की सीमा पर डटे हुए हैं।छोटे बेटे शहीद लेफ्टिनेंट यश आदित्य ने सी.एम.एस.महानगर, लखनऊ से इंटर करने के बाद एन.डी.ए.परीक्षा दी और प्रथम प्रयास में ही चयनित होकर ट्रेनिंग पर चले गये।वर्ष 2006में भारतीय सेना में कमीशंड अफसर होकर लेह पहुंचे।साल भर की अल्प अवधि में 7मैकेनाइज्ड इंफैंट्री(1डोगरा)को अपनी सेवाएं देते हुए अपनी ही मिलिट्री स्पेशल ट्रेन की सुरक्षा करने में अपनी शहादत दे दिये।
घर का चिराग जब असमय बुझ जाता है तो मां बाप के लिए कितना पीड़ादायक होता है... यह शहीद लेफ्टिनेंट यश आदित्य की मां मीना त्रिपाठी से कोई पूछे..
लेकिन कोई क्यों पूछे ?...
सेना ही जब अपने शहीद सैनिकों का पुरसाहाल नहीं लेती है सिवाय रस्में निभाने के..
आज इस ख़ास मौक़े पर इन सारी बातों को शेयर करते हुए यह महसूस कर रहा हूं कि सैनिकों और उनके परिजनों के सुख की घड़ी में ना सही , दुख की घड़ी में समाज और सरकार का कुछ ख़ास फर्ज़ होता है..जो लोग नहीं निभा पा रहे हैं।
.....ये सभी अनगिनत सुंदर फूल जो खिलने के तुरंत बाद मुरझा गये ..उन जैसे हजारों फूलों को, उनकी शहादत को नमन कर रहा हूं !उनके ऋण से हम कभी भी उऋण नहीं हो पायेंगे।"
ब्लाग लेखक:- श्री. प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी,लखनऊ।