15 की उम्र में हुई थी शादी पर खुद बनाई अपनी पहचान, डेढ़ लाख महिलाओं को दिलाया रोज़गार!


त्तीसगढ़ के कोरिया महिला गृह उद्योग की अध्यक्ष नीलिमा चतुर्वेदी को नीति आयोग ने 'वीमेन ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया' अवार्ड 2018 से नवाज़ा गया है। महिलाओं और आदिवासियों के उत्थान के लिए नीलिमा पिछले 20 वर्षों से कार्यरत हैं। गृह उद्योग की स्थापना से पहले भी वह अपना स्वयं सहायता समूह बनाकर महिलाओं को रोजगार से जोड़ने का काम करती थीं।

नीलिमा, कोरिया जिले और आस-पास के सभी आदिवासी इलाकों में महिला सशक्तिकरण का जीवंत उदाहरण हैं। उन्होंने अपने निजी जीवन में अथाह परेशानियों का सामना किया और फिर अपने पैरों पर खड़े होकर आत्म-निर्भर बनीं। यहाँ भी उन्होंने हर कदम पर चुनौतियाँ झेलीं, लेकिन हार नहीं मानी।

आज द बेटर इंडिया आपको रूबरू करा रहा है 50 वर्षीय नीलिमा चतुर्वेदी के संघर्ष भरे सफ़र और सफलता की कहानी से!

सरगुजा में जन्मी और कोरिया जिले के जनकपुर गाँव में पली-बढीं नीलिमा चतुर्वेदी की शादी मात्र 15 साल में हो गयी थी। उस समय उन्होंने सिर्फ आठवीं कक्षा की परीक्षा पास की थी। पढ़ने का जज़्बा इस कदर था कि शादी के बाद भी पढ़ाई जारी रखी।

उनके पति की दिमागी स्थिति सही नहीं रहती थी और इस वजह से बहुत बार उन्हें घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ा। नीलिमा बताती हैं,


"मैं 16 साल की थी, जब पहली बेटी हुई और पति की हालत ऐसी थी कि उन्हें कुछ होश ही नहीं रहता था। कितनी ही बार अपनी धुन में वह मुझे और बेटी को मारने के लिए दौड़ पड़ते थे। अपने ही घर में मैं अपनी बेटी को इधर-उधर छिपाती थी।"

उनके ससुराल में भी कोई उनका दर्द समझने वाला नहीं था। वह घर के सारे काम-काज करती और बेटी को सम्भालती थीं, साथ ही पति की चिंता भी लगी रहती थी। ऐसे में, उनकी ढाल बनीं उनकी 'माँ'। नीलिमा कहती हैं कि उनकी माँ हमेशा उनके साथ खड़ी रहीं और वही थीं जिनकी वजह से उनकी पढ़ाई नहीं छूटी।

"माँ मुझे मेरे ससुराल वालों से लड़कर परीक्षा दिलाने ले जाती थी। मैं जनकपुर(मायका) जाकर काफी दिन रहती थी। वहां माँ बच्चों को सम्भालती और मैं पढ़ाई कर पाती थी। उन्होंने खुद मेरे साथ पढ़ाई भी की। शायद ज़िन्दगी की हर एक परेशानी को झेलकर आगे बढ़ने की ताकत मुझे माँ से ही मिली," उन्होंने आगे बताया।

नीलिमा ने पहले ग्रैजुएशन किया और फिर एम. ए. भी किया। इसके बाद, साल 1992 में उन्हें आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के तौर पर नौकरी मिल गयी। अपने बच्चों को संभालते हुए उन्होंने नौकरी शुरू की। नीलिमा को लगने लगा कि शायद अब उनका जीवन आसान हो जाएगा।

उनके नौकरी शुरू करने के सात साल बाद, साल 1999 में स्वयं सहायता समूह गठन करने की योजना आई। उन्हें भी स्वयं सहायता समूह बनाने के लिए ऊपर से आदेश मिले। नीलिमा कहती हैं कि आज जिस तरह से महिलाएं खुद आगे बढ़कर समूहों से जुड़ना चाहती हैं, उस जमाने में ऐसा नहीं था।

एक स्वयं सहायता समूह बनाने के लिए उन्होंने न जाने कितने ही लोगों की गाली-गलौच और विरोध का सामना किया। "मुझे तो लोग दुत्कारते थे ही, मेरी माँ को भी ताना मारने से बाज नहीं आते थे। वे मेरी माँ को कहते थे कि, 'बेटी को अपने घर में रख लिया है और अब हमारे घर की बहू-बेटियों को खराब करने आ गयी है।' बहुत मुश्किल से पूरा दिन घूम-घूम कर उस समय 10 महिलाओं को मैं जोड़ पायी।"

समूह के गठन के बाद उन्हें 25 हज़ार रुपये का लोन मिलना था, लेकिन बैंक ने उन्हें 15 हज़ार रुपये ही दिए। इन पैसों से उन्होंने हाथ से बुनाई का काम शुरू किया और स्वेटर, झालर और तोरण जैसी वस्तुएं बनाने लगीं। इन उत्पादों की बिक्री से उन्हें जो भी पैसा मिलता, उससे वह और उत्पाद बनाने के लिए सामग्री खरीद लेती थीं।

एक बार जब उन्हें प्रॉफिट होने लगा और उनके उत्पादों की मांग बढ़ने लगी तो उन्होंने बुनाई की मशीन खरीद ली। इससे उनका समूह प्रतिदिन 20-30 स्वेटर बना लेता था। साल 2002 तक उन्होंने राज्य स्तर के एक्जिबिहिशन में 5 हज़ार से ऊपर स्वेटर बनाकर बेचे।

उनकी सफलता देखकर इलाके की और भी महिलाओं को अपने पैरों पर खड़े होने की प्रेरणा मिली। देखते ही देखते, वह पांच और स्वयं सहायता समूह बनाने में कामयाब रहीं। उन्हें स्वेटर, साज-सज्जा के सामान के साथ सरकारी मीटिंग आदि के लिए भोजन बनाने का काम भी मिलने लगा।

महिलाओं को अपने काम के प्रति ईमानदारी और मेहनत देखकर, तत्कालीन जिला अधिकारी ने उन्हें राशन की दुकानों के लिए भी टेंडर भरने को कहा। "पर उस समय राजनीति इतनी थी कि हमारी एक भी महिला को राशन की दुकान नहीं मिली। यहां के दबंगों और नेताओं को लगा कि हम महिलाएँ और चुप बैठ जाएंगी।" उन्होंने आगे कहा।

नीलिमा और उनकी साथी महिलाओं ने तबके की इस सोच को गलत साबित कर दिया। उन्होंने अपने हक़ की लड़ाई लड़ी और वे सभी मिलकर कलेक्टर के यहां जा पहुंची। कलेक्टर ने पूरे मामले की जाँच करवाई और 16 राशन की दुकानें महिलाओं को दी गयी।

अपने हक़ के लिए जो साहस और जज़्बा उन्होंने दिखाया, उसके लिए उन्हें साल 2006 में 'सरगुजा श्रम श्री सम्मान' से नवाज़ा गया।

नीलिमा अपनी सफलता में कई सरकारी अधिकारियों का योगदान मानती हैं, जिनमें आईएएस ऋतू सेन की अहम भूमिका है। जब सेन की कोरिया जिले में कलेक्टर के रूप में नियुक्ति हुई, तब तक नीलिमा सिर्फ जनकपुर में ही लगभग 40 स्वयं सहायता समूह बना चुकी थीं।

सेन ने महिलाओं को इतने बड़े समूह में संगठित होकर काम करता देख, उन्हें एक अलग पहचान देने का फैसला किया। साल 2011 में IAS सेन ने 'कोरिया महिला गृह उद्योग' की नींव रखी। इसका लक्ष्य था – 'संगठन से स्वाबलंबन की ओर!'

उन्होंने नीलिमा की अध्यक्षता में पहले से चल रहे सभी समूहों को इससे जुड़ने के लिए कहा। साथ ही, उन्होंने नीलिमा को पूरे कोरिया में महिलाओं के स्वयं सहायता समूह बनाने के लिए कहा। नीलिमा पूरे जिले से इस प्रोग्राम के लिए लगभग 15,000 स्वयं सहायता समूह बनाने में कामयाब रहीं। इन समूहों के ज़रिए उन्होंने डेढ़ लाख महिलाओं को रोज़गार से जोड़ा।

इस प्रोग्राम के तहत अलग-अलग ब्लॉक स्तर पर प्रोडक्शन यूनिट शुरू की गई और यहां पर पापड़, मसालें, बड़ियाँ, अचार, पोहा आदि का उत्पादन शुरू हुआ।

कोरिया महिला गृह उद्योग के उत्पादों की बिक्री के लिए लगभग 300 'कोरिया किराना दुकान' खोली गईं हैं। इन दुकानों को चलाने के लिए प्राथमिकता भी महिलाओं को ही दी गयी। दुकानों के साथ-साथ सरकार द्वारा आयोजित मेले, सेमिनार, और वर्कशॉप आदि में भी लगातार उनका जाना रहा है।

"स्कूलों में मिड-डे मील में शिकायतें आती थीं, इसलिए कलेक्टर मैडम से हम महिलाओं को ही मिड-डे मील तैयार करने का काम दे दिया। लगने लगा था कि अब गाड़ी सही रास्ते पर जा रही है, पर महिलाओं को इतना आगे बढ़ता देख समाज कभी खुश हुआ है? बस, फिर कुछ वक़्त में ही कलेक्टर मैडम का तबादला हो गया क्योंकि, मैडम नेताओं के भ्रष्टाचार को खत्म कर रही थीं," उन्होंने आगे कहा।

कलेक्टर ऋतू सेन के अचानक तबादले के बाद, गृह उद्योग का काम बिखरने लगा। स्वयं सहायता समूह टूटने लगे और इसके साथ कहीं न कहीं जिले की महिलाओं का आत्म-निर्भर बनाने का सपना भी बिखरने लगा। ऐसे में, नीलिमा ने आगे बढ़कर फिर एक बार कमान संभाली। उन्होंने भरतपुर की प्रोडक्शन यूनिट का पूरा काम संभाला और अन्य जगहों की यूनिट्स में भी जाकर महिलाओं को प्रोत्साहित किया।

15 हज़ार में से वह 12 हज़ार स्वयं सहायता समूहों को बनाए रखने में कामयाब रहीं। इन समूहों से जुड़ी महिलाएं आज महीने के 5 से 6 हज़ार रुपये कमा रही हैं। अब वे किसी पर भी अपनी ज़रूरतों के लिए निर्भर नहीं हैं।

नीलिमा ने महिलाओं को रोजगार से जोड़े रखा, साथ ही उन्होंने सरकार के साक्षरता और स्वच्छता प्रोग्राम को भी गाँव-गाँव पहुंचाने में मदद की। जब समूह में किसी की बेटी की शादी होती है, तब वह मदद के लिए अन्य महिलाओं के साथ चंदा इकट्ठा करती हैं।

वह गर्व से कहती हैं कि उनकी महिला साथी अब खुद अपने साधन जुटाने में सक्षम हैं। कुछ समय पहले ही, उनके समूह की महिलाओं ने IIT मुंबई से प्रशिक्षण लेकर खुद 18 हज़ार सोलर लैंप बनाये थे। साथ ही, प्रोडक्शन यूनिट को भी वह बाखूबी चला रही हैं।


इस पूरे संघर्ष के दौरान, नीलिमा अपनी निजी ज़िन्दगी में भी जूझती रहीं। इस सबके बीच उन्होंने अपने एक बेटे और फिर अपनी सबसे बड़ी ताकत, अपनी माँ को खो दिया।


"2009 में करंट लगने से मेरे एक बेटे की मौत हो गयी थी और फिर 2013 में माँ को खो दिया। उस पल तो ऐसा लगा कि अब दुनिया में कुछ नहीं बचा है, पर फिर उन औरतों के बारे में सोचा जो मुझे देखकर आगे बढ़ने का हौसला रखती हैं।" – नीलिमा

नीलिमा ने अपने किसी भी दुःख को अपने काम की राह में नहीं आने दिया। उन्हें ख़ुशी है कि आज उनके बाकी तीन बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं। अंत में वह सिर्फ इतना कहती हैं, "मेरी बेटियां अच्छा पढ़ गईं और अपने पैरों पर खड़ी हैं। भाई को भी वही संभाल रही हैं, इसलिए उनकी तरफ से मैं निश्चिन्त हूँ। अब मेरा जीवन बस यहीं इन महिलाओं के लिए है। इनके लिए जो कुछ बन पड़ेगा, मैं करती रहूंगी।"

स्त्रोत : द बेटर इंडिया 



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