नेतरहाट के कोटया हाट में अचानक मांदर के साथ स्वर गूंजते हैं, दाहा-दाहा तुर, धनतिना धन तुर...नोआ हेके असुर अखरा रेडियो..ऐनेगाबु, डेगाबु सिरिंग आबु...(आआे...गाओ, नाचो, बोलाे... ये है असुर अखरा रेडियो)। साउंड बॉक्स से निकलती आवाज की ओर भीड़ इकट्ठा हो जाती है। सभी जोर से तालियां बजाने लगते हैं। बात ही फैलने-फैलाने वाली है। विलुप्त हो रही असुर जनजाति के युवाओं ने अपनी असुर भाषा के संरक्षण और प्रचार-प्रसार के लिए पहला असुर मोबाइल रेडियो का आगाज रांची से 200 किमी दूर पहाड़ और जंगलों से घिरे गांवों में किया है। संसाधन के नाम पर उनके पास कंप्यूटर, मिक्सर, माइक और साउंड सिस्टम है। स्टूडियो नहीं है। पहले गीत, इतिहास और समसामयिक समाचार की रिकॉर्डिंग होती है, फिर टीम नेतरहाट के आसपास के 8 बाजार-हाट में इसे असुर ग्रामीणों को सुनाती है।
और ऐसे बन गया स्टूडियो :
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इस रेडियो की शुरुआत 19 जनवरी को कोटया हाट से हुई। जोभीपाट के रिटायर्ड प्रिंसिपल चैत असुर, वंदना टेटे, प्रो. महेश अगुस्टीन कुजूर की अगुवाई में कवयित्री आदि की टीम ने जंगल के बीच एक बेंच बिछाई और चारों ओर बैठकर गाना और बोलना शुरू कर दिया। इस तरह स्टूडियो बन गया। हर सप्ताह अलग-अलग हाट पहुंचकर ये कार्यक्रम असुर ग्रामीणों के बीच सुनाए जा रहे हैं।
भारत में विलुप्त हो रही 196 भाषाओं में असुर भी
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संसार को लोहा से परिचित कराने वाली असुर जनजाति की आबादी झारखंड में करीब 10 हजार है। असुर भाषा भारत की 196 लुप्त हाे रही भाषा में शामिल है। यूनेस्को की वर्ल्ड एटलस ऑफ एंडेंजर्ड लैंग्वेजेज के अनुसार वर्तमान पीढ़ी अपनी असुर भाषा न बोल पाती है और न ही समझ पाती है। जिससे असुर भाषा के विलुप्त होने का खतरा बढ़ गया है।
Source and Credit : Fb page of Jhavendra Kumar Dhruw &