विविधभारती के होने से है तीज-त्यौहार के आगमन की आहट भी - 🔹कीर्ति राणा


रेडियो पर गीत बज रहा था 'अब के बरस भेज भैया को बाबूल, सावन में लीजो बुलाय रे...और मेरे सामने बिना भाई वाली मां का आंसुओं में भीगा चेहरा घूम रहा था।अभी की पीढ़ी के लिए तो ऐसे गीत का कोई मतलब नहीं क्योंकि रूठी हुई बहन को मनाने या उसके साथ शैतानियां करने के लिए 'कुछ मीठा हो जाए' जैसे भावनात्मक विज्ञापनों म्यूजिक चैनल या एफएम पर राखी मेला शापिंग डिस्काउंट वाले एड से ही पता चलता है कि भाई-बहन के असीम प्रेम का त्यौहार आने वाला है।

विविधभारती पर साल के बाकी दिनों में यह गीत बजे न बजे लेकिन सावन के महीने में जब रक्षाबंधन त्यौहार की पदचाप सुनाई देने लगती है तब तो यह गीत जरूर सुनसकते हैं, बशर्ते आप विविधभारती सुनना पसंद करते हों।'बंदिनी' के इस गीत में संगीत तो हल्का सा ही है। गीतकार शैलेंद्र की जनकवि के रूप में पहचान क्यों है इस गीत के एक एक शब्द के मर्म को महसूस करने पर समझा जा सकता है।शैलेंद्र ने गीत लिखते हुए जो कल्पना की, गायिका आशा भोंसले ने इसे गाते हुए दर्द का समंदर उड़ेला दिया है।राखी और भाई के प्रेम से वंचित बहनों की उस पीड़ा को आशा जी की आवाज से ही व्यक्त कराने का ऐसा जादू सचिनदेव बर्मन ही दिखा सकते हैं।नायिका नूतन जेल में बंद है, सजा काट रही एक अन्य महिला कैदी भी उसी कोठरी में है। घट्टी पर गेंहूं पीसते हुए वह भाई, मां और बाकी परिजनों, गांव, गुड़िया, सावन और सहेलियों की याद मुट्ठी में भर भर कर घट्टी में पीसते हुए अनुरोध कर रही है अब के बरस भेज भैया को....कैमरा उससे हटकर नूतन के चेहरे के हावभाव पर ठहर सा जाता है तो सहज अहसास हो जाता है वह कैदी महिला जो कुछ गा रही है उन सारी यादों के बादल उमड़ घुमड़ कर नायिका की आंखों से बस बरसने ही वाले हैं। 
कैमरा अब इस कोठरी के बाहर बैठी अन्य महिला कैदियों के चेहरे पर घूम रहा है, उन सब के चेहरे-आंखों से झलकती उदासी-हताशा को महसूस करते हुए लगने लगता है कि ये सब भी अपने भाइयों-घर के लोगों की याद में डूबी हैं।श्वेतश्याम फिल्म के इस गीत को आशा भोंसले ने गाया तो शिद्दत से है किंतु सुनते और खासकर इस गीत को देखते हुए महसूस होता है कि सीने में जैसे बर्फ के खंजर धंसते जा रहे हों। 
अब के बरस भेज भैया को....जैसे गीत सीने में तीर की तरह कैसे चुभते रहते, इसे उन बहनों से बेहतर कौन समझेगा जिनके कानों में गीत के बोल पड़ते ही आंखों से सावन बरसने लगता है।रेडियो पर जब भी यह गीत बजता था तो आटा गूंथती मां की आंखों से टप टप गिरते आंसू आटे वाली उस थाली में गिरने लगते। तब या तो रेडियो का वॉल्यूम धीमा कर देते, या ध्यान भटकाने के लिए बेमतलब की बातें करने लगते या फिर रेडियो की सूई तब तक आगे पीछे करते रहते जब तक गीत पूरा न हो जाए।
तब कहां एफएम का जमाना था, सुबह जिसकी भी नींद पहले खुल जाती वह बासी मुंह ही सबसे पहले रेडियो ऑन करना नहीं भूलता। रात को छाया गीत तो बच्चों के लिए लोरी और मां की गोद में थपकियों के साथ निंदिया रानी के साथ वक्त बिताने का काम करते थे।रात में तो कई बार झगड़ा ही इसी बात पर हो जाता था कि रेडियो बंद क्यों किया। उन गीतों को सुनते सुनते कब नींद आ जाती पता ही नहीं चलता था।कभी सुबह मां ही बताती या खड़खड़ाते रेडियो की आवाज से ही आधी रात में नींद खुल जाती तो ताज्जुब भी होता कि रात की सभा समाप्त होने के बाद कब से रेडियो यूं ही खड-खड़ कर रहा था।यह रेडियो की ही दीवानगी थी कि सुबह सिगनेचर ट्यून के साथ आकाशवाणी घर के कोने कोने में अपनी आमद दर्ज करा देता था। न सिर्फ कब कौनसा प्रोग्राम आएगा यह रट गया था बल्कि यह भी पता रहता था कि सुबह के गीतों की शुरुआत ज्योति कलश छलके से होगी। '
सिलोन और विविध भारती से बजने वाले गीतों से ही अंदाज लग जाता था कि आज पहली तारीख है या कि होली, राखी, पंद्रह अगस्त या दीवाली आने वाली है।आकाशवाणी के इंदौर केंद्र से शाम ए गजल कार्यक्रम शारदा सायमन, बीएन बोस या युव वाणी अनिता मलिक (जोशी) पेश कर रही हैं यह बिना उदघोषक का नाम सुने उनकी आवाज से ही अंदाज लगा लेते थे।रामायण और महाभारत धारावाहिक के प्रसारण पर जैसे शहरों में सन्नाटे की स्थिति बन जाती थी।लगभग ऐसा ही जुनून सिलोन से हर बुधवार रात आठ बजे बिनाका गीतमाला के लिए हुआ करता था।पौने आठ बजे से ही रेडियो को बाहर खुले में रख कर इधर-उधर लाल धागे वाली सूई घुमाना शुरु हो जाता था, जैसे ही बिगुल की धुन सुनाई पड़ती एकसाथ सब चिल्ला पड़ते बस अब मत छेड़ना, हट जा वहां से। उधर अमीन सयानी भाइयों-बहनों से नमस्कार करते और इधर बहनें डायरी में पिछले बुधवार के गीतों के आधार पर बताने लग जातीं कि कौनसा गीत दसवीं और कौनसा पहली पायदान पर रहेगा।आज भी ट्रेन के लंबे सफर में जब ताश खेलते हुए उकता जाते हैं तो "बैठे-बैठे क्या करो, करो तो कुछ काम, शुरु करो अंताक्षरी ले के प्रभु का नाम' के साथ 'म' से गाना दिया जाता है तो 'मेरा गोरा रंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे' या 'मेरा जूता है जापानी, मेरी चाल है मस्तानी से' ही शुरुआत होती है।सात हाथ, चौकड़ी में चार खेलते और दो-चार सलाह देते हैं लेकिन जहां बोगी में गीतों के बोल गूंजे कि आसपास की सीटों पर भी पहले से अनुमान लगा कर बता दिया जाता है कि 'ढ' और 'ड' जैसे कठिन शब्द का गीत 'ढूंढो-ढूंढो रे साजना, ढूंढो रे साजना मोरे कान का बाला' या 'डम डम डिगा डिगा, मौसम भीगा भीगा' गीत है। मजे की बात यह कि अधिकांश समय कानों में ईयरफोन ठूंसे रखने वाले युवा भी अंताक्षरी खेलते हुए पुराने गीतों की लाइनें ही गुनगुनाते नजर आते हैं। 
भारतीय पर्वों-संस्कृति की मधुरता आज भी सखी सहेली में दूरदराज की सखियों से ममता सिंह की चर्चा में पकवानों की महक से पता चलती है या फिर युनूस खान के अंदाज से पता चलता है कि दो-ढाई मिनट का जो गीत सदाबहार बना उसके निर्माण की प्रक्रिया कितनी लंबी चली थी। आज भी विविध भारती पर सुबह से रात तक बजने वाले गीतों को सुनते हुए ही बारिश के मौसम में तरबतर होने का अहसास 'ओ सजना बरखा बहार आई, रस की फुहार लाई, अंखियों में प्यार लाई' से हो जाता है या पानी नहीं बरसने पर अल्ला मेघ दे पानी दे, पानी दे गुड़ धानी दे से पूरे देश के मौसम का हाल पता चल जाता था । गीत लेखन से लेकर संगीत रचना तक में आज की फिल्मों में भी सकारात्मक प्रयोग हो रहे हैं लेकिन क्या वजह है कि आज भी जब भगवान को याद करना हो तो ऐ मालिक तेरे बंदे हम...का झरना ओठों से बह निकलता है या ईश्वर के प्रति निश्छल प्रेम भाव दर्शाना हो तो स्वत: समूह गान के रूप में सकूली प्रार्थना ही क्यों याद आती है 'हमको इतनी शक्ति देना जग विजय करें, दूसरों की जय से पहले खुद को जय करें।
साभार— वरिष्ठ पत्रकार श्री कीर्ति राणा की फेसबुक वॉल से
ब्लॉग रिपोर्ट—प्रवीण नागदिवे,आकाशवाणी मुम्बई

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