Inspirational:उस शख्स की कहानी जिसने सतपुड़ा के जंगलों को टूरिस्ट स्पॉट में बदल डाला!


क्या आप जानते हैं जंगल में एक तिलिस्म होता है, एक महक होती है जो आपके अन्दर के अंधकार को मिटा देती है। भले ही हम विकास की रफ्तार में आगे बढ़ते जा रहे हों लेकिन यह सच है कि हम सब प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं।

यह जो कोरोना वायरस की वजह से लॉकडाउन हुआ और पूरी दुनिया ठहर सी गई, शायद प्रकृति का एक तरीका हो हमें समझाने का कि जिस तेज़ी में हम भाग रहे हैं वह हमें विनाश की ओर ले जा रही है। इसलिए ठहरिये और सोचिये कि कहीं गलत राह तो नहीं पकड़ ली। फिलहाल लॉकडाउन में राहत तो मिली है लेकिन अभी भी लोग घरों में बंद डिप्रेशन का शिकार हो रहे हैं। फिलहाल मैं आ पहुंची हूँ सतपुड़ा के जंगलों में जहाँ एक जादुई लोक बसता है। जिसका नाम है पातालकोट।

पातालकोट के बारे में अनेक कहानियां सुनी हैं मैंने। यह जगह कई मायनों में अद्भुत है। कहते हैं यहाँ के कुछ स्थानों तक सूरज की रौशनी भी नहीं पहुँचती है। पातालकोट छिंदवाड़ा जिला मुख्यालय से 78 किलोमीटर दूर सतपुड़ा की पहाड़ियों के बीच एक ऐसा जंगल है जिसमें जगह-जगह कुछ अनदेखे, अनछुए चमत्कार सांस ले रहे हैं। यहीं पर लगभग 1700 फीट नीचे बसा है पातालकोट। कहते हैं कि यह जगह समुद्र तल से लगभग 750 से लेकर 950 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह स्थान 79 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला हुआ है। यहाँ पर भारिया आदिवासी समाज रहता है जोकि भारत में पाए जाने वाले चुनिन्दा विशेष पिछड़ी जनजाति में से एक है। यहाँ भारिया आदिवासी समाज के 12 गांव हैं, जो अपनी संस्कृति, अपने इतिहास, अपनी भौगोलिक स्थिति में हर मायने में अलग है। कुछ वर्ष पहले तक तो यहां पहुंचने के लिए सड़क भी नहीं थी। आदिवासी लोग खड़े पहाड़ पर लताओं और पेड़ों की जड़ों को पकड़ कर ऊपर आते थे।

इस रहस्यमयी दुनिया से रूबरू होने के लिए मेरे मन में इच्छा पैदा हुई कि काश कोई ऐसा व्यक्ति होता जो मुझे हाथ पकड़ के इस दुनिया के लोगों से रूबरू करवाता। एक ऐसा इंसान जो कि इन जंगलों के हर कण, हर पत्ते को, हर पत्थर को जानता हो।

यहाँ एक ऐसे ही शख्स से हमारी मुलाकात होती है, जिनका नाम पवन श्रीवास्तव है

पवन का घऱ तामिया इलाके में है। वह लंबे समय तक कारपोरेट में अच्छी नौकरी कर रहे थे। उनकी माँ इस क्षेत्र में आंगनबाड़ी अध्यापिका की नौकरी करती थीं। इस तरह पवन का बचपन अपनी माँ की उंगली थामे पातालकोट के अलग-अलग गाँव में बीता। वह पढ़ाई पूरी कर शहर में कारपोरेट की नौकरी करने चले गए लेकिन उनकी आत्मा का एक हिस्सा यही जंगलों में छूट गया। वह बड़े पद पर काम कर रहे थे। लेकिन कुछ था जो अधूरा था, कुछ था जो उन्हें पीछे खींच रहा था। शायद यह जंगलों का आकर्षण ही रहा होगा जो अपने वनपुत्र को लगातार लौटने के लिए पीछे से खींच रहा था। एक दिन पवन ने आमिर खान की फिल्म 3 इडियट देखी और नौकरी छोड़ वापस लौटने का बड़ा फ़ैसला करने की हिम्मत पाई।

पवन को नहीं पता था कि घर कैसे चलेगा लेकिन यह विश्वास ज़रूर था कि यह जंगल हमेशा सबको देते आए हैं। तो पवन भी भूखे नहीं मरेंगे। पवन के पास कोई ब्लू प्रिंट नहीं था कि वह लौटकर क्या करेंगे लेकिन भरोसा था। उन्हें इस जंगल, यहाँ के आदिवासी लोगों के लिए कुछ करना था। यह बात है वर्ष 2009 की जब उन्होंने भारत सरकार की एक योजना जोकि विशेष पिछड़ी जनजाति की योजना –संरक्षण सह विकास के लिए इस क्षेत्र में चलाई जा रही थी, के साथ जुड़ गए। पवन ने इस योजना के मूल्यांकन के लिए गठित समिति के साथ सहायक के रूप में इस क्षेत्र के चप्पे चप्पे की यात्राएं की और पातालकोट को गहराई से समझा। इसके अलावा पवन को जब जहाँ जो अवसर मिलता, वह उसके साथ जुड़ जाते। उन्होंने कई सामाजिक संस्थानों के साथ निस्वार्थ भाव से काम भी किया। उनका उद्देश्य स्पष्ट था। पवन को पातालकोट को जानना और यहाँ के लोगों के लिए काम करना था। इसलिए उनको जब जो सहारा मिला पवन ने उसके साथ जुड़ कर काम किया।

जब खोला टूरिस्ट इनफार्मेशन सेंटर

यहाँ के जंगल पवन के लिए घर के आंगन जैसे हैं। उन्हें पातालकोट का एनसाइक्लोपीडिया भी कहा जा सकता है। उन्हें लगता था कि एक ऐसी जगह होनी चाहिए जहाँ से आने वाले पर्यटक को यहाँ की पूरी जानकारी मिले। पवन ने बिना किसी सरकारी सहायता के वर्ष 2016 में टूरिस्ट इनफार्मेशन सेंटर की शुरूआत की। इसके अन्तर्गत वह समुदाय विकास के अनेक कार्यक्रम चलाते हैं। उन्होंने इस क्षेत्र के लगभग 150 युवाओं को टूरिज्म सेक्टर में काम करने लिए तैयार किया है। वह सतपुड़ा के जंगलों में अनेक प्रकार की अड्वेंचर एक्टिविटी चलाते हैं जिसमें ट्रेकिंग, कैंपिंग, रिवर वाल्किंग, स्टार गेजिंग, बाइकिंग आदि शामिल हैं। पवन ने यहाँ पातालकोट और तामिया में लगभग 12 ट्रेक ख़ुद ढूँढ निकाले हैं।

पवन द बेटर इंडिया को बताते हैं , "पर्यटन के लिए यहां तामिया-पातालकोट में पहले से करीब 7-8 पॉइंट्स थे जहां लोग घूमने जाते थे और वही आकर्षण भी था, किंतु पर्यटकों के आने से और अधिक आवश्यकता महसूस होती थी। धीरे-धीरे प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क भी बनती जा रही थी स्थानीय होने के कारण मुझे विद्यार्थी जीवन से ही बहुत से स्थलों के बारे में पता था। मैंने पिछले 10 वर्षों में 20 से अधिक स्थानों को टूरिस्ट पॉइंट्स के रूप में खोजा और इंट्रोड्यूस किया। यहां मैंने विशिष्ट पहचान के साथ एक्टिविटी भी कराई ट्रेकिंग रूट्स तैयार किये जिनका लेवल 1से 4 तक रखा है।"

पवन इसका सारा श्रेय प्रधानमंत्री सड़क योजना को देते हैं। वह कहते हैं कि इस सड़क योजना ने देश दुनिया से कटे गांवों को जोड़ दिया है। यह इको टूरिज्म के लिए वरदान है। जंगल कितना ही घना क्यों न हो वहां तक अच्छी सड़क होगी तो लोग देखने जाएँगे ही, यह इको टूरिज्म को नई ऊर्जा देती है।

पातालकोट की रसोई –एक अनोखी सामुदायिक पहल

पवन के मन में हमेशा से एक जागरूकता रही है कि जो भी काम किया जाए उसका फायदा यहाँ के ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे। इसके लिए जब पवन पातालकोट के स्वाद को पातालकोट की रसोई के माध्यम से अलग अलग शहरों में ले कर जाते हैं तो वह इस रसोई में उपयोग में आने वाली एक एक वस्तु को पातालकोट में फैले लगभग 20 से अधिक गांवों से जुटाते हैं। उनका उद्देश्य इन विशेष पिछड़ी आदिवासी समाज तक कुछ लाभांश पहुँचाना होता है।
पवन बताते हैं, "किसी गाँव से हम पारंपरिक खाद्दान जैसे कोदो कुटकी, मक्का, बलहर, शाक सब्जी, बरबटी और वनोपज आदि लेते हैं तो कहीं से पारंपरिक आभूषण किराए पर लेते हैं। हमारी रसोई में आदिवासी महिलाओं द्वारा भोजन तैयार किया जाता है और वही मसाले उपयोग में लाए जाते हैं जो यहाँ के लोग खाते हैं। ताकि पातालकोट के स्वाद में कोई मिलावट न हो।"

कैसे हुई इस रसोई की शुरूआत?

इसके पीछे भी एक रोचक कहानी है। पवन ने अपने बचपन में इन जंगलों में रहने वाले आदिवासी भारिया जनजाति के लोगों के घरों में जाकर भोजन खाया था और वह स्वाद पवन की जबान पर रचा बसा था। पवन ने अपने जीवन में से इस से ज्यादा स्वाद खाना अन्य कहीं नहीं खाया था। यह पूरी तरह से ऑर्गेनिक था और प्रेम से खिलाया गया था। इसी स्वाद ने उन्हें रसोई की शुरूआत करने का आइडिया दिया। वर्ष 2011 में पवन ने पातालकोट की रसोई नाम से एक एक ऐसे कांसेप्ट की शुरुआत की। यह एक सोशल एन्टरप्रेनरशिप स्टार्टअप के रूप में शुरू हुआ। पातालकोट की रसोई 3 तरीके से काम करती है।
आने वाले पर्यटकों को गांवों में स्थानीय लोगों के घरों में ग्रामीणों के द्वारा खाना बनाकर खिलाना
आयोजनों में स्टॉल लगाना
मोबाइल केटरिंग

इसके अन्तर्गत पवन सैलानियों को पातालकोट के जंगलों से होते हुए आदिवासी समाज के एक घर में उन्हीं के द्वारा तैयार पारंपरिक भोजन करवाते हैं। यहाँ के आदिम स्वाद लोगों को बरसों याद रहते हैं। जो एक बार पातालकोट की रसोई में खाना खा ले वह हमेशा के लिए उस स्थान के साथ जुड़ जाता है। पातालकोट की रसोई में आदिवासियों द्वारा तैयार किए कुछ विशेष व्यंजन परोसे जाते हैं जैसे, मक्का रोटी, महुआ की पूरी,देसी भेजरा टमाटर की चटनी, बल्हर की साग, बल्हर की घुँघरी, चना की भाजी, कुटकी भात, कोदो का भात, बरबटी की दाल, बलहर की दाल, कद्दू की खीर ( चिरौंजी के प्रयोग हेतु), केवकन्द के पकौड़े (जड़ी बूटी अंतर्गत दवाई की तरह), देसी बरबटी दाल के बड़े, कुटकी का पेजा (हाइड्रेशन मेंटेन करता है),मक्के का पेज, कचरिया फ्राई और गुड़ की जलेबी आदि। इनके अलावा पातालकोट की रसोई के बैनर तले आदिवासी महिलाओं द्वारा तैयार किये पापड़, मक्का, चावल,गेंहू, उड़द, कुटकी अचार, आँवला, आम, कच्ची हल्दी, नीबू, वनोपज , प्राकृतिक जंगल का शहद और जामुन सिरका उपलब्ध करवाया जाता है।

पवन फ़ूड फेस्टिवल में जाकर पातालकोट की रसोई सजाते हैं और बड़े शहरों के लोगों तक यहाँ का स्वाद पहुंचाते हैं।

आत्मनिर्भरता की ओर एक क़दम

यह क्षेत्र पारंपरिक मक्के का क्षेत्र है। पवन यहाँ की महिलाओं से अनुरोध कर पारंपरिक चक्की पर मक्का पिसवाते हैं और उसे आने वाले पर्यटक को बेच कर लाभ सीधा उस महिला तक पहुंचाते हैं। हालाँकि यह एक समय खपाने वाला काम है। जहाँ आंटा चक्की में सस्ते में कम समय में आंटा पिस सकता है पवन इन आदिवासी महिलाओं से हाथ की चक्की से आंटा पिसवाते हैं ताकि वह अपनी परम्पराओं से जुड़ी रहें और बाहर की दुनिया के लोगों को ऑर्गेनिक आंटा भी मिल जाए।

कैसे बना ट्राइब स्केप
2016 में मुंबई निवासी एक एड एजेंसी के मालिक शशांक नाभर यहाँ घूमने आए थे। उन्होंने जब पवन के साथ इस जगह को गहराई से जाना तो पवन के काम को सराहते हुए उनको एक नाम दिया ट्राइब स्केप। पवन ने इस नाम से एक ब्रांड बनाया जिसके तहत वह लोगों को आदिवासी जीवन और इको टूरिज्म से रूबरू करवाते हैं। यह ट्राइबल विलेज टूरिज्म का अनोखा कांसेप्ट है। वह ट्राइब स्केप के द्वारा वह ऐसे लोगों को स्वागत करते हैं जो कि प्रकृति का सम्मान करते हैं।

पवन के लिए इस इको सिस्टम को बनाए रखना प्राथमिकता है। उनकी फ़िक्र रहती है कि सड़क के सहारे विकास तो पहुंचा है लेकिन इस विकास के सहारे इन लोगों की प्राकृतिक नैसर्गिकता कहीं दूषित न हो जाए।

इको टूरिज्म की अपार संभावनाएं

पवन ने पातालकोट को एक गोल रोटी की तरह माना है। जिसके चार हिस्से करके वह लोगों को इस से रूबरू कराते हैं। पातालकोट 12 गांव में बंटा हुआ एक ऐसा आदिवासी इलाका है जहां पर भारिया और गोंड जनजाति के लोग निवास करते हैं।

यहां के लोगों के घर मिट्टी के बने हुए हैं क्योंकि वह अपने हाथों से बनाते हैं। जंगल पर निर्भर यह लोग इनके घर की बाड़े की तरह होते हैं घर के पीछे बनी बड़ी जिसमें वह खेती करते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि पातालकोट जड़ी बूटियों का खजाना है। एक अनुमान के अनुसार इस इलाके में 220 प्रकार की जड़ी बूटियां पाई जाती हैं।

यात्रा के दौरान पवन हमें विद्या देवी के घर ले गए। विद्या देवी एक आदिवासी महिला है। उन्होंने चूल्हे पर हमारे लिए मक्के की रोटी चने की दाल और चौलाई का साग पकाया। उनकी बिटिया ने घर के पीछे बने आम के पेड़ से आम तोड़ चटनी पीसी। लेकिन उनके घर में बर्तन नहीं थे। जिनमें हम खाना खाते। मैं थोड़ी हैरान थी कि सिर्फ गिनती की चार बर्तनों के सहारे हम लोग खाना खाएंगे कैसे। जो भी बर्तन नजर आ रहे थे उस मिट्टी के घर में वह सिर्फ पकाने वाले बर्तन थे। मेरी हैरानी अभी खत्म नहीं हुई थी कि उनकी बिटिया अपने हाथों में ढाक के पत्ते लिए चली आ रही थी उसने मेरे सामने ही पत्तों को फैलाकर पत्तल बनाई और हमारे लिए खाने के बर्तन तैयार थे। हमने चूल्हे पर पकी मक्के की रोटी और दाल, चौलाई की सब्जी, कच्चे आम की चटनी जी भर कर खाई।

पातालकोट का शहद

पातालकोट में शहद अन्य इलाकों से अलग होत है। इस सबंध में पवन बताते हैं कि यहां शहद छोटी मधुमक्खी का होता है और यह मधुमक्खी किसी पेड़ पर अपना छत्ता नहीं बनाती यह पहाड़ों में अपना छत्ता बनाती हैं। वह भी बहुत ऊंचाई पर जाकर। आप इस शहद को डीप फ्रीजर में भी रख देंगे तो भी यह शहद नहीं जमेगा।

सामाजिक सरोकार 
पवन इस स्थान से इतने जुड़े हुए हैं कि कोई अधिकारिक हैसियत न होने के बावजूद वह इस क्षेत्र के लोगों यहाँ तक कि जानवरों तक की चिंता करते हैं। यह बात वर्ष 2018 की है, भीषण गर्मी पड़ने लगी थी, पहाड़ी क्षेत्रों में जल स्रोत सूखने लगे थे। पातालकोट का एक गाँव है हारमउ,इस गाँव में एकमात्र जलस्रोत कुँआ था जो सूखने लगा था। ऐसे में पवन ने गांव के समीप स्थित एक पहाड़ी जल स्रोत से पाइप जोड़कर गांव तक पानी पहुंचाया। इस काम में स्थानीय प्रशासन ने उनकी मदद की।

स्टील थाली बैंक

पवन ने प्लास्टिक डिस्पोजल रोकने हेतु 6-7 साल पहले स्टील थाली बैंक की शुरूआत की थी। इस बैंक को पवन के परिवार के लोगों ने 10 थाली सेट दान किये। आज यह बैंक इस आदिवासी समाज में जहाँ जिसको बर्तनों को ज़रूरत होती है पहुँच जाता है। इस बैंक को बहुत से पर्यटकों मेहमानों,सज्जनों के सहयोग से अब धार्मिक एवं समाजिक संगठनों के लोग भी अपनाने लगे है।

नेचर्स आर्मी

तामिया में पवन ने एक हैप्पी क्लब शुरू किया है जिसका उद्देश्य केवल पेड़ लगाना ही नहीं बल्कि पेड़ों को जिंदा रखना भी है। इस क्लब के सदस्यों को नेचर्स आर्मी कहा जाता है।

पातालकोट की मेरी यात्रा की स्मृतियों में पवन श्रीवास्तव से मुलाक़ात हमेशा के लिए दर्ज हो गई। काश हमारे देश के सभी जंगलों को पवन जैसे दिल से जुड़े पुत्र नसीब हों, जो जंगल के प्रहरी बन कर यहीं रहते हुए इन जंगलों को और बेहतर बनाने का काम करते हों।

Source: The Better India

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