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एक ऐसी लड़की, जिसे अंग्रेजी नहीं आती थी और एक दिन वह ब्रिटेन जैसे देश की सबसे मशहूर शिक्षाविदों में शुमार की जाने लगी।
सुनने में ये कहानी कुछ-कुछ फिल्मी लगती है, जिस महिला को अपने जीवन के 25 वर्षों तक अंग्रेजी का ज्ञान तक नहीं था, उसने हजारों अंग्रेज छात्रों की जिंदगियों को बदल दिया। आशा खेमका वर्तमान में ब्रिटेन के प्रख्यात कॉलेज वेस्ट नाटिंघमशायर कॉलेज की मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) और प्रिंसिपल हैं। उनके नेतृत्व में कॉलेज ब्रिटेन के सर्वाधिक प्रतिष्ठित कॉलेजों में स्थान बनाने में सफल रहा। २०१७ में उन्हें 'एशियन बिजनेस वूमन ऑफ द ईयर' के सम्मान से नवाजा गया है। 
आज वह हजारों युवाओं, महिलाओं की प्रेरणास्रोत हैं। उन्होंने यह बात साबित की है कि अगर मन में चाह है तो कोई भी बाधा मनुष्य को रोक नहीं सकती है। वह हर बाधा पर विजय पाकर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। वह कहती हैं, 'शिक्षा को लेकर अपने जुनून को मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती और यह जुनून हर दिन बढ़ता जा रहा है। मैं इस शानदार क्षेत्र का हिस्सा बन कर बहुत गौरवान्वित महसूस करती हूं।'

आशा खेमका के इस मुकाम तक पहुंचने की दास्तान बड़ी रोचक और प्रेरक है। उनका जन्म बिहार के सीतामढ़ी जिले के मुख्यालय सीतामढ़ी (तब मुजफ्फरपुर जिले का हिस्सा) में एक सम्मानित व्यवसायी परिवार में 21 अक्तूबर 1951 को हुआ था। आपको जान कर हैरानी होगी कि आज ब्रिटेन के एक प्रतिष्ठित कॉलेज की प्रिंसिपल को महज 13 वर्ष की उम्र में पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी। दरअसल, तब लड़कियों की शिक्षा को लेकर समाज में जागरुकता नहीं थी। तब लड़कियों को ज्यादा पढ़ाने का चलन नहीं था। ऐसा माना जाता था कि लड़कियां ज्यादा पढ़-लिख कर क्या करेंगी या वे ज्यादा पढ़-लिख गईं तो उनके लिए वर ढूंढ़ना मुश्किल हो जाएगा। बहरहाल, एक दिन अचानक घर की स्त्रियों ने आशा से कहा कि वह साड़ी पहन कर तैयार हो जाए। उसे शादी के लिए लड़के वाले देखने आ रहे हैं। आशा खूब रोई, लेकिन घर वालों की इच्छा के सामने उनकी एक न चली। उनकी सगाई कर दी गई। उम्र रही होगी, यही कोई 15 साल के आसपास। उनके होने वाले पति शंकर लाल खेमका तब मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे। डॉ. शंकर लाल खेमका आज ब्रिटेन के प्रसिद्ध ऑर्थोपेडिक सर्जन हैं। 
1978 में आशा खेमका अपने पति और तीन बच्चों- बेटी शालिनी तथा बेटों शील और स्नेह के साथ इंग्लैंड आ गई। जब वह इंग्लैंड आईं तो अंग्रेजी का ज्ञान न के बराबर था। उनकी शिक्षा भी कुछ खास नहीं थी। यहां आकर वह कई सालों तक अपने घर के कामकाज में ही मशगूल रहीं। यहां उन्होंने बच्चों के टीवी शो देख कर अंग्रेजी सीखी। साथ ही अपने जैसी महिलाओं के साथ अंग्रेजी में बात कर भी अपनी अंग्रेजी को बेहतर बनाती रहीं। वह परिश्रमी तो थी हीं, उनमें गजब का जज्बा भी था। जब बच्चे कुछ बड़े हो गए तो उन्होंने अपनी छूट गई पढ़ाई को फिर से शुरू किया। फिर कार्डिफ यूनिवर्सिटी से बिजनेस डिग्री हासिल की और उसके बाद अध्यापन के क्षेत्र में कदम रखा। फिर 2006 में वह वेस्ट नॉटिंघम कॉलेज की प्रिंसीपल बनीं। यह कॉलेज इंग्लैंड के सबसे बड़े कॉलेजों में से एक है।

आशा खेमका 'असोसिएशन ऑफ कॉलेजेज इन इंडिया' की चेयरपर्सन भी हैं। उनका एक चैरिटेबल ट्रस्ट भी है 'द इंस्पायर एंड अचीव फाउंडेशन'। इसमें उनके साथ ब्रिटेन के कई गणमान्य लोग ट्रस्टी हैं। इस ट्रस्ट का फोकस है 16-24 साल के उन युवाओं को अपना भविष्य संवारने में मदद करना, जो शिक्षा, रोजगार से वंचित हैं और उनके पास किसी प्रकार का प्रशिक्षण नहीं है। भारत में शिक्षा और कौशल विकास को लेकर उनके पास कई योजनाएं हैं और उन पर वह काम कर रही हैं

अवॉर्ड आशा खेमका के लिए कोई नई बात नहीं हैं। शिक्षा के क्षेत्र में उनके बेहतरीन योगदान के लिए पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा चुका है। 2013 में उन्हें ब्रिटेन के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक 'डेम कमांडर ऑफ द ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर' से सम्मानित किया जा चुका है। इस सम्मान को महिलाओं के लिए 'नाइटहुड' उपाधि के समान माना जाता है। महिलाओं के लिए यह सर्वोच्च ब्रिटिश सम्मान है। इसकी स्थापना 1917 में हुई थी। आशा इस सम्मान को पाने केवल दूसरी महिला हैं। यह सम्मान पाने वाली पहली भारतीय महिला धार की महारानी लक्ष्मी देवी थीं। उन्हें 1931 में यह सम्मान मिला था। इससे पांच वर्ष पहले 2008 में आशा को 'ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश एम्पायर' (ओबीई) से भी सम्मानित किया जा चुका है।

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