यह देवकीनंदन पांडे है. अब आप आकाशवाणी से...'
एक ज़माना था कि रेडियो सेट से गूंजती देवकीनंदन पांडे की आवाज़ भारत के जन जन को सम्मोहित कर लेती थी. अपने जीवनकाल में ही लेजेंड बन गए देवकीनंदन पांडे के समाचार पढ़ने का अंदाज़, उच्चारण की शुद्धता, झन्नाटेदार रोबीली आवाज़ किसी भी श्रोता को रोमांचित कर देने के लिए काफ़ी थी.
देवकीनंदन पांडे को साथ काम कर चुके मशहूर पत्रकार उमेश जोशी याद करते हैं, "पौने नौ बजे का बुलेटिन जैसे ही शुरू होता था. बस एक ही आवाज़ सुनाई देती थी. ये आकाशवाणी है. अब आप देवकीनंदन पांडे से समाचार सुनिए. बहुत भारी भरकम और बहुत कर्णप्रिय आवाज़. जितने भी बड़े अवसर थे चाहे ख़ुशी का अवसर हो या ग़म का अवसर हो, देवकीनंदन पांडे समाचार पढ़ते थे."
जोशी आगे कहते हैं, "जवाहरलाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण के निधन का समाचार उन्होंने ही पढ़े. संजय गाँधी के आकस्मिक निधन का समाचार वाचन करने के लिए रिटायर हो चुके देवकीनंदन पांडे को ख़ास तौर से दिल्ली स्टेशन पर बुलवाया गया. जितने भी बड़े अवसर होते थे, उन्हें ख़ास तौर से समाचार पढ़ने बुलाया जाता था, चाहे उनकी ड्यूटी हो या न हो. सब को पता था कि ये देश की आवाज़ है. पांडेजी कह रहे हैं तो इसका मतलब पूरा देश कह रहा है."
कानपुर में पैदा हुए देवकीनंदन पांडे ने 1943 में आकाशवाणी लखनऊ से कैजुअल एनाउंसर और ड्रामा आर्टिस्ट के रूप में अपने करियर की शुरुआत की थी. 1948 में जब दिल्ली में आकाशवाणी की हिंदी समाचार सेवा शुरू हुई तो करीब 3000 उम्मीदवारों में उनकी आवाज़ और वाचन शैली को सर्वश्रेष्ठ पाया गया. उसके बाद से उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.
कई वर्षों तक देवकीनंदन पांडे के साथ काम कर चुके और आकाशवाणी में न्यूज़ एडिटर के पद से रिटायर हुए त्रिलोकीनाथ बताते हैं, "ऊँचा माथा, भीतर तक झाँकती शफ़्फ़ाक आँखें, चेहरे पर झलकता आत्मविश्वास, साफ़गोई- ये सब मिला कर देवकीनंदन पांडे का शानदार व्यक्तित्व बनता था. सफ़ेद लंबा कुर्ता पायजामा, एक चप्पल और सर्दियों पर इस पर एक काली अचकन. घड़ी बाँधते नहीं थे और कभी कलम भी नहीं रखते थे, फिर भी ड्यूटी पर हमेशा चाकचौबंद. वक्त के पूरे पाबंद. काम के प्रति ईमानदारी इतनी कि बुलेटिन शुरू होने से पाँच मिनट पहले ही उठ कर स्टूडियो चले जाते थे. नई पीढ़ी के वाचक तो दो मिनट पहले जाने में अपनी हेठी समझते हैं."
लखनऊ में मिले उर्दू के अनुभव ने उन्हें हमेशा स्पष्ट समाचार वाचन में मदद की. देवकीनंदन पांडे का मानना था कि हिंदी भारत की राष्ट्र भाषा ज़रूर है लेकिन वाचिक परंपरा में उर्दू के शब्दों से परहेज़ नहीं किया जाना चाहिए.
उनके साथ काम कर चुके और अपने ज़माने में मशहूर समाचार वाचक अज़ीज़ हसन कहते हैं, "उनकी आवाज़ कॉमन आवाज़ नहीं थी. एक अलग आवाज़ थी. वो उर्दूदाँ थे. उन्हें शेरोशायरी का बहुत शौक था. इसकी वजह से उनका तलफ़्फ़ुस बहुत अच्छा था."
देवकीनंदन पांडे जितने लोकप्रिय आम आदमियों के बीच थे उतने ही बड़े नेताओं और ख़ास लोगों के बीच भी. उमेश जोशी बताते हैं, "आकाशवाणी की एक स्टाफ़ एसोसिएशन हुआ करती थी और मशहूर समाचार वाचक अशोक वाजपेई उसके कर्ता धर्ता हुआ करते थे. तब स्टाफ़ आर्टिस्ट को पेंशन और ग्रेजुएटी नहीं मिलती थी. 58 साल की उम्र में रिटायर होते थे और अपने घर चले जाते थे. उनका भविष्य अंधकारमय होता था. वो मांग कर रहे थे कि उन्हें भी दूसरे सरकारी कर्मचारियों की तरह ट्रीट किया जाए और उन्हें भी पेंशन और ग्रेजुएटी की सुविधा दी जाए."
"इस सिलसिले में एक पूरा प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से मिलने गया. बातचीत हो रही थी. इंदिरा गाँधी की नज़रें फ़ाइलों पर नीचे गड़ी हुई थीं. जब अशोक जी ने देवकीनंदन पांडे का परिचय कराया कि ये देवकीनंदन पांडे हैं और ये भी हमारे साथ आए हैं तो इंदिरा गांधी ने काम छोड़ दिया. कलम नीचे रख दी और नज़रें उठा कर बोलीं, 'अच्छा तो आप हैं देवकीनंदन पांडे.' यानी कि इंदिरा गाँधी भी उनको इतना सुनती रही थीं. वो ज़माना ही ऐसा था कि अगर किसी को भी ख़बर सुननी हो तो आकाशवाणी ही एकमात्र माध्यम होता था."
देवकीनंदन पांडे के बेटे और इस समय रंगमंच और बॉलीवुड के अभिनेता सुधीर पांडे बताते हैं कि घर में भी ग़लत हिंदी बोलने पर वो टोक देते थे. "जब मैं स्कूल में था तो सब जानते थे कि ये देवकीनंदन पांडे के बेटे हैं. उस ज़माने में मनोरंजन का साधन रेडियो और सिनेमा हुआ करता था. मेरे पिता आवाज़ से ही पहचाने जाते थे. उनका नाम लिया और पता चल जाता था कि वो कौन हैं. मुझे गर्व महसूस होता था कि एक शख़्स जो इतना लोकप्रिय है और जो इतना जाना जाता है, मैं उनका बेटा हूँ. ये भी होता था कि हिंदी की क्लास में जब हम ग़लत वाक्य या ग़लत शब्द बोल देते थे तो हमारे टीचर सबसे कहते थे कि देखिए साहब देवकीनंदन पांडे के बेटे हो कर ये ग़लत हिंदी बोल रहे हैं. घर में भी पिताजी ग़लत शब्द का इस्तेमाल बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाते थे. वो फ़ौरन टोक देते थे कि ये कैसा शब्द बोल रहा है."
देवकीनंदन पांडे का मानना था कि ख़बर को पूरी तरह समझ लेने के बाद ही उसे पढ़ना चाहिए. मशहूर समाचार वाचक कृष्ण कुमार भार्गव ने न सिर्फ़ उनके साथ काम किया था बल्कि उनसे कुछ गुरुमंत्र भी लिए थे. भार्गव बताते हैं, "1960 में मेरा हिंदी समाचार वाचक के रूप में चयन हुआ था. जब मुझसे पहली बार समाचार पढ़ने के लिए कहा गया तो मेरी समझ में ही नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ. मेरे एक मित्र थे केशव पांडे जो उस समय विविध भारती में काम करते थे. मैंने कहा केशवजी मुझे बताइए कि समाचार कैसे पढ़े जाते हैं?"
"उन्होंने मुझसे कहा कि मैं तुम्हें एक शख़्स से मिलवाता हूँ. मेरे सामने वाली कुर्सी पर एक शख़्स बैठे हुए थे कुर्ता पायजामा पहने हुए. मुझे उनके सामने ले जा कर वो बोले मिलिए देवकीनंदन पांडे से. . सुन कर मैं खड़ा हो गया. मेरे मुंह से निकला कि आपको सुनते सुनते ही मैं बड़ा हुआ हूँ. उन्होंने कहा भार्गव समाचार कोई कला नहीं है. लेकिन जो कुछ पढ़ो, उसे समझकर पढो. ये गुरुमंत्र मैंने उनसे सीखा और जीवन भर मैं उसे अपनाता रहा."
देवकीनंदन पांडे के व्यक्तित्व का एक दिलचस्प पहलू ये भी था कि वो अपने पास कलम नहीं रखते थे. उमेश जोशी बताते हैं, "अक्सर मैंने देखा है कि न्यूज़ रीडर अपनी स्क्रिप्ट पर कलम से मार्किंग करते हैं, कि कहाँ पर मुझे पॉज़ देना है या कहाँ पर स्ट्रेस देना है. लेकिन पांडेजी ने कभी कोई मार्किंग नहीं की. ये ज़रूर होता था कि स्टूडियो में समाचार पढते हुए वो अपने दाहिने हाथ का अंगूठा और पहली उंगली इस तरह करीब ले आते थे मानो उन्होंने कलम पकड़ी हुई हो."
"उसके बाद वो पढ़ते पढ़ते हवा में मार्किंग किया करते थे. कहीं कॉमा हो तो कॉमा लगाते थे, विराम हो तो विराम लगाते थे. किसी भी मौके पर मैंने उन्हें फ़ंबल करते हुए नहीं देखा. अगर कोई गल़ती होती भी थी तो वो इस सफ़ाई से संभालते थे कि किसी को कुछ पता ही नहीं चलता था कि कोई ग़लती हुई है."
न्यूज़ एडीटर त्रिलोकीनाथ याद करते हैं, "एक बार यासेर अराफ़ात से जुड़ी एक ख़बर पढ़ी जानी थी. वो आधी ही टाइप हो पाई. मैंने सोचा कि जब पांडेजी दूसरी ख़बरें पढ रहे होंगे, तभी मैं उस ख़बर को पूरा लिख दूँगा. अधूरा वाक्य था- इस बारे में पूछे जाने पर यासेर अराफ़ात ने... इसके आगे कुछ नहीं लिखा था. मैं वाक्य पूरा करना भूल गया और वही ख़बर पांडेजी को पढने के लिए दे दी. लेकिन पांडे जी ने बिना रुके अधूरे वाक्य को सहजता से यह कहते हुए पढा कि यासेर अराफ़ात ने कुछ भी स्पष्ट कहने से इंकार कर दिया."
न्यूज़ रूम में उनकी मौजूदगी का एहसास, कमरे के अंदर से आ रहे ठहाकों से होता था. उन ठहाकों से न्यूज़ रूम के बाहर खड़े लोग समझ जाते थे कि वो अंदर मौजूद हैं. अज़ीज़ हसन याद करते हैं, "उनका जूनियर-सीनियर सब के साथ बहुत दोस्ताना व्यवहार हुआ करता था. सबको पता था कि वो दिल के साफ़ आदमी हैं. उनके दिल में छलावा, दिखावा या पालिटिक्स बाज़ी जैसी कोई चीज़ नहीं थी. उनको थोड़ा बहुत ड्रिंक करने का शौक था. वही उनकी अकेली कमज़ोरी थी लेकिन उनकी वजह से उनके बुलेटिन पर कोई असर नहीं पड़ता था."
उनकी विनोदप्रियता का एक उदाहरण देते हुए कृष्ण कुमार भार्गव एक पुराना किस्सा याद करते हैं, "उन दिनों रेडियो पर विविध भारती से हर घंटे एक बुलेटिन हुआ करता था. उसे बनाया मैंने था लेकिन उसे पढना पंडितजी को था. मैंने उनको स्क्रिप्ट दी और कहा चलिए पढ़ने का समय हो गया है. वो बोले यार आज मूड नहीं हो रहा है. तुम्हीं इसे जा कर पढ दो. मैं गया. मैंने फ़ेडर ऑन किया और पढना शुरू किया... ये आकाशवाणी है. अब आप देवकीनंदन.... वो चूँकि लिखा हुआ था. इसलिए पहले मेरे मुंह से वो लिखा हुआ निकला. फिर मैंने अपने आप को संभाला और कहा क्षमा कीजिए... अब आप कृष्ण कुमार भार्गव से समाचार पढिए."
"जब मैं समाचार पढ़ कर वापस आया तो उनसे कहा पांडे जी आज तो बहुत बड़ी ग़लती हो गई. जब मैंने सारी बात बताई तो वे हंसते हुए बोले- कोई बात नहीं भार्गव. मैंने भी एक बार अपनी जगह उर्मिला मिश्र का नाम बोल दिया था."
उनका एक दूसरा क़िस्सा भी बड़ा मशहूर है. एक बार किसी की चुनौती पर उन्होंने समाचार का आरंभ कुछ इस तरह से किया था, "यह देवकीनंदन पांडे है. अब आप आकाशवाणी से समाचार सुनिए."
उनके समाचार पढ़ने के ढंग में पूरी तरह स्पष्टता हुआ करती थी. वो कहा करते थे कि अगर भारत मैच जीत गया तो मैं अति उत्साह में समाचार क्यों पढूँ? समाचार वाचन के बारे में वो एक बेहतरीन गुर बताते थे जो आज के 99 फ़ीसदी समाचार वाचकों और एंकरों को शायद नहीं मालूम होगा.
उमेश जोशी बताते हैं, "वो कहते थे कि एक चुटकी बजाओ, उतना समय दो वाक्यों के बीच होना चाहिए. दो चुटकी जितना समय दो पैराग्राफ़ और तीन चुटकी जितना समय दो ख़बरों के बीच देना ज़रूरी है. वर्ना भागवत कथा पढ़ने और समाचार पढ़ने में कोई अंतर नहीं रहेगा."
देवकीनंदन पांडे ने कई रेडियो नाटकों में भाग लिया था. उन्हें आधारशिला फ़िल्म और लोकप्रिय टेलिविजन सीरियल तमस में अपने अभिनय के जलवे दिखाने का मौका भी मिला था. खाने पीने का भी उन्हें बहुत शौक था.
देवकीनंदन पांडे को हमशा समाचार वाचन की विधा के शिखर पुरुष के रूप में याद किया जाएगा. उनकी पंद्रहवीं बर्सी पर मजाज़ का एक शेर याद आता है-
छुप गए वो साज़-ए- हस्ती छेड़ कर, अब तो बस आवाज़ ही आवाज़ है.
-रेहान फ़ज़ल
(साभार-बीबीसी)
Source : fb page of Manish Kumar Solanki