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जब अंग्रेज भारत छोड़ रहे थे तो उन्होंने देसी रियासतों को तीन विकल्प दिए। एक यही कि वे खुद स्वतंत्र रहें या फिर भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ विलय कर लें। करीब 550 से अधिक रियासतों के अलग-अलग मिजाज वाले राजा-महाराजाओं के साथ विलय की संधि पर हस्ताक्षर कराना और उन्हें भारत का हिस्सा बनाना बेहद कठिन कार्य हैदराबाद के निजाम और जूनागढ़ के नवाब ने पाकिस्तान के साथ विलय का फैसला किया था और मध्य भारत में कुछ महाराजा अपनी आजादी का राग अलाप रहे थे। ऐसे वक्त में पटेल ने दखल दिया और जहां जरूरी हुआ वहां सैन्य शक्ति से भी काम लिया और उनका भारत में विलय कराया। हैदराबाद के पाकिस्तान में विलय के संदर्भ में उन्होंने कहा कि वह 'भारत के पेट में तकलीफ को बर्दाश्त नहीं कर सकते।' प्रधानमंत्री नेहरू इस मामले में सख्ती से खुश नहीं थे। यदि तब लौहपुरुष सरदार पटेल नहीं होते तो भारत की आजादी के साथ ही उसके नक्शे की तस्वीर भी बिगड़ जाती।
पटेल के अलावा किसी और में यह हिम्मत नहीं थी जो नेहरू की जिद के आगे अड़ सकता। क्या यह सब स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के निर्माण के लिए काफी नही? आखिर इस प्रतिमा को राष्ट्र को समर्पित किए जाने पर नेहरूवादी और माक्र्सवादी ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैैं जैसे उनकी दुखती रग छेड़ दी गई हो?
राष्ट्रीय एकता के तमाम मसलों पर सरदार पटेल जहां कड़ाई से निपटते थे वहीं व्यापक लक्ष्य के लिए त्याग और तत्परता का असाधारण गुण भी दिखाते थे। उनके ये गुण नेहरू के एकदम उलट थे। वर्ष 1928, 1929, 1936 और 1946 में ऐसे मौके आए जब उन्हें गांधी की सलाह पर नेहरू के लिए रास्ता छोड़ना पड़ा। 1946 में जब यह तय था कि जो भी कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाएगा अंग्रेज उसे ही स्वतंत्र भारत का पहला प्रधानमंत्री बनाने के लिए आमंत्रित करेंगे तब पार्टी ने 15 प्रदेश कांग्रेस समितियों से इसके लिए नाम मंगाए। 15 में से 12 समितियों ने पटेल के नाम पर मुहर लगाई। तीन राज्य अनिर्णय की स्थिति में थे।दूसरे शब्दों में कहा जाए तो एक भी प्रदेश कांग्रेस समिति नहीं चाहती थी कि नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री बनें। नेहरू इससे खीझ गए और उन्होंने गांधी को स्पष्ट रूप से कह दिया कि वह किसी के नायब बनकर काम नहीं करेंगे। नेहरू की तरफदारी करते हुए गांधी ने फिर हस्तक्षेप किया और पटेल को इस होड़ से हटना पड़ा। जहां उनकी पार्टी और नेता यह चाहते थे कि पटेल ही स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बनें वहीं उन्होंने पार्टी और राष्ट्रीय एकता के लिए इस ऐतिहासिक अवसर को त्याग दिया।
नेहरू-गांधी परिवार के वफादार इतिहासकार इतने वर्षों तक इन तथ्यों को लोगों से छिपाते रहे। ऐसे में जो लोग यह सवाल पूछ रहे हैं कि पटेल की प्रतिमा पर इतनी भारी-भरकम राशि क्यों खर्च की गई उनके लिए यही एक जवाब हो सकता है कि क्या ये कारण पर्याप्त नहीं कि हम सरदार का सबसे शानदार तरीके से स्मरण करें?

स्टैच्यू ऑफ यूनिटी पर सवाल उठाने वाले इस पर भी गौर करें तो बेहतर कि 15 दिसंबर 1950 को जब पटेल का मुंबई में निधन हुआ तब नेहरू ने अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे उनकी अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए मुंबई न जाएं। इससे भी ज्यादा खराब उनका यह फैसला था कि पटेल के निधन के तुंरत बाद उन्हें दी गई कार तुरंत विदेश मंत्रालय को वापस की जाए। नेहरू की मानसिकता का सबसे बड़ा उदाहरण भारत रत्न से जुड़ा है। 1955 में नेहरू ने खुद को भारत रत्न से सम्मानित किया। वहीं सरदार पटेल को यह सम्मान बहुत बाद में 1991 में जाकर चंद्रशेखर सरकार ने दिया।
भारत में दुग्ध क्रांति के जनक माने जाने वाले वर्गीज कुरियन बताते हैं कि नेहरू ने मणिबेन के साथ क्षुद्र व्यवहार किया। पटेल के निधन के बाद मणिबेन सरदार पटेल की एक किताब और झोला लेकर नेहरू से मिलने गईं। पटेल ने उनसे कहा था कि वह उन्हें नेहरू को सौंप दें। उस थैले में कांग्रेस पार्टी के 35 लाख रुपये और किताब में पार्टी का बहीखाता था। नेहरू ने दोनों चीजें लेकर उन्हें धन्यवाद दिया। मणिबेन प्रतीक्षा करती रहीं कि वह उनसे कुछ और भी कहेंगे, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा और मणिबेन वहां से चली आईं। जिस महिला के सिर से पिता का साया उठ गया उसे ढांढ़स बंधाना तो दूर, नेहरू ने उनकी सुधि ही नहीं ली कि आखिर वह किस तरह अपनी गुजर-बसर कर रही हैं। कुरियन ने नेहरू के व्यवहार को बहुत तकलीफदेह बताया था।

काफी वक्त पहले मैंने 450 सरकारी योजनाओं, परियोजनाओं और संस्थानों के नामों की सूची तैयार की थी जो नेहरू-गांधी परिवार के केवल तीन सदस्यों के नाम पर ही थे। इनमें केंद्र सरकार की अधिकांश समाज कल्याण योजनाएं, हवाई अड्डे, राष्ट्रीय पार्क, शैक्षणिक एवं वैज्ञानिक संस्थान और खेल स्पर्धाएं शामिल हैं। कहीं कुछ नहीं छोड़ा गया। फिर भी जो लोग आत्ममुग्धता के ऐसे अशिष्ट प्रदर्शन का स्तुतिगान करते रहे वे आज उस विराट व्यक्तित्व के सम्मान यानी स्टैच्यू ऑफ यूनिटी पर सवाल उठा रहे हैं जिसके प्रयासों से भारत का यह स्वरूप सुनिश्चित हुआ। नेहरू और उनके शागिर्दों ने पटेल के साथ जो संकीर्णता दिखाई उसे देखते हुए समय आ गया है कि समूचा भारत उसकी भरपाई करे।

यह सुखद है कि बड़ी संख्या में लोग स्टैच्यू ऑफ यूनिटी देखने जा रहे हैैं। इस प्रतिमा की स्थापना प्रधानमंत्री मोदी की प्रतिबद्धता से ही संभव हो सकी। उन्होंने पटेल को वह सम्मान दिलाने के लिए कमर कसी जिसके वह हकदार थे। प्रधानमंत्री मोदी को ऐसे विघ्नसंतोषियों को नजरअंदाज करते हुए सुनिश्चित करना चाहिए कि स्कूली किताबों में बच्चे सरदार के वास्तविक रूप से रूबरू हो सकें। भारत की एक और महान विभूति सुभाषचंद्र बोस के स्मरण के लिए भी उन्हें ऐसी ही एक परियोजना पर काम करना चाहिए। बोस भी 'सरकारी इतिहासकारों' द्वारा उपेक्षा के वैसे ही शिकार हुए जैसे पटेल हुए। भारत हमेशा प्रधानमंत्री मोदी का शुक्रगुजार रहेगा कि उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि भारत अपने वास्तविक नायकों का स्मरण कर उनके प्रति कृतज्ञ रहे।

लेखक: ए सूर्यप्रकाश

[ लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]

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