जब रेडियो सुनने के लिए लेना पड़ता था डाक तार विभाग से लाइसेंस ।



क्या आप जानते हैं कि अपने देश में एक वो भी दौर था, जब लोगों को रेडियो सुनने के लिए भी लाइसेंस की जरूरत पड़ती थी। यह लाइसेंस डाक तार विभाग जारी करता था। भारत में रेडियो के इतिहास पर अगर नजर डाली जाए तो वह दौर अपने आप में खास रहा है। उस समय देश में जब आज की तरह मनोरंजन के संसाधन मौजूद नहीं थे तब ऐसे में एक मात्र रेडियो ही लोगों का सहारा था। ये बात और है कि आधुनिक युग में मनोरंजन के संसाधनों में होते विस्तार की वजह से आज हमारे जीवन में रेडियो की वह अहमियत नहीं रही, जिस वजह से कहीं न कहीं रेडियो की उपयोगिता खत्म सी हो गई है। लेकिन एक समय ऐसा भी था कि जब रेडियो सुनने के लिए लोगों को लाइसेंस लेना पड़ता था।

हल्द्वानी उप मंडल के सहायक डाक अधीक्षक जेएस बोरा ने इस दिलचस्प विषय पर प्रकाश डालते हुए बताया कि उस दौर में रेडियो ही एक मात्र साधन हुआ करता था जिसके माध्यम से लोग आवश्यक सूचनाएं व मनोरंजन संबंधित कार्यक्रमों का लुत्फ लिया करते थे। उन्होंने बताया की इन सूचनाओं व कार्यक्रमों का आंनद लेने के लिए उन दिनों लोगों को लाइसेंस लेना पड़ता था और अगर कोई व्यक्ति बिना लाइसेंस के रेडियो सुनता था तो उसे दंडित किए जाने का भी प्रावधान था।

जेएस बोरा ने बताया कि रेडियो सुनने के लिए लाइसेंस भारतीय डाक विभाग भारतीय तार अधिनियम 1885 के अंतर्गत जारी करता था और यह लाइसेंस दो प्रकार के हुआ करते थे डोमेस्टिक व कामर्शियल। यानी अगर आप अपने घर पर बैठकर रेडियो कार्यक्रमों का आंनद लेना चाहते थे तो आपको डोमेस्टिक और यदि सामूहिक रूप से रेडियो कार्यक्रमों को सुनना या सुनाना चाहते थे तो कामर्शियल लाइसेंस बनवाना पड़ता था। इसके साथ ही लाइसेंस पर निर्धारित शुल्क का डाक टिकट लगाकर इसे प्रतिवर्ष रिन्यूवल करवाना पड़ता था, जोकि करीब 20 रुपए के आस-पास का होता था। उन्होंने बताया कि उस दौर में बिना लाइसेंस के रेडियो कार्यक्रमों को सुनना कानूनी अपराध माना जाता था। जिसमें आरोपी को वायरलेस टेलीग्राफी एक्ट 1933 के अंतर्गत दंडित किए जाने का प्रावधान था।

ऐसे बजता था रेडियो
रेडियो सुनने की अनुमति डाक विभाग देता था, जो भारतीय तार अधिनियम 1885 के अंतर्गत जारी होता था।
उस जमाने में बीना लाइसेंस के रेडियो सुनने पर वायरलेस टेलीग्राफी एक्ट 1933 के तहत सजा का प्रावधान किया गया था।
रेडियो सुनने के लिए जारी किए जाने वाले लाइसेंस पासपोर्ट के जैसी किताब की तरह दिखता था।
डाक विभाग द्वारा इस पर डाक टिकट लगाया जाता था, जिसकी अवधि एक साल की होती थी।
सिग्नल काफी वीक होने की वजह से रेडियो सुनने के लिए टीवी की तरह छत के ऊपर एक एंटीना लगाना पड़ता था।

जब रेडियो से हटाया गया शुल्क का प्रावधान

1980 के करीब एक समय ऐसा भी आया जब रेडियो के प्रति लोगों का रुझान कम होने लगा। इस दौर में देश में तेजी से मनोरंजन के संसाधनों में विकास हो रहा था। जिसकी वजह से नए-नए मनोरंजन के साधन बढ़ रहें थे। इसी करण से रेडियो लोगों से दूर होता चला गया। और घरों में रेडियो की जगह टीवी ने ले लिया। हालांकि अभी भी रेडियो का महत्व कम नहीं हुआ था। इसकी पकड़ अब भी थी, लेकिन वह धीरे धीरे कमजोर हो रही थी। करीब अस्सी का दशक रहा होगा, जब रेडियो सुनने के लिए फीस और लाइसेंस को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया। इसके पहले इसका आनंद लेने के लिए लोगों को कीमत अदा करने के साथ ही बाकायदा लाइसेंस भी 1980 के करीब एक समय ऐसा भी आया जब रेडियो के प्रति लोगों का रुझान कम होने लगा। इस दौर में देश में तेजी से मनोरंजन के संसाधनों में विकास हो रहा था। जिसकी वजह से नए-नए मनोरंजन के साधन बढ़ रहें थे। इसी करण से रेडियो लोगों से दूर होता चला गया। और घरों में रेडियो की जगह टीवी ने ले लिया। हालांकि अभी भी रेडियो का महत्व कम नहीं हुआ था। इसकी पकड़ अब भी थी, लेकिन वह धीरे धीरे कमजोर हो रही थी। करीब अस्सी का दशक रहा होगा, जब रेडियो सुनने के लिए फीस और लाइसेंस को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया। इसके पहले इसका आनंद लेने के लिए लोगों को कीमत अदा करने के साथ ही बाकायदा लाइसेंस भी बनवाना पड़ता था।

स्त्रोत  :-https://ift.tt/32l7vX8

द्वारा अग्रेषित :  श्री. झावेन्द्र कुमार ध्रुव,jhavendra.dhruw@gmail.com.


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