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नव वर्ष के अवसर पर विगत दिनों को आकाशवाणी गोरखपुर के संगीत स्टूडियो में आमंत्रित श्रोताओं के समक्ष एक मुशायरे का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की शुरुआत में जनाब शाकिर अली शाकिर ने अपने कलाम... "शरारत में उसकी अपना बचपन देखता हूँ, जब मेरा बच्चा मेरे कंधे पर आकर बैठ जाता है"...से किया। तत्पश्चात, प्रतिक्रियात्मक सामाजिक परिवेश के वर्तमान दौर पर चोट करते हुए जनाब ख़ुर्शीद आलम ने... "एक फ़साना तेरा भी है मेरा भी, बोझल शाना तेरा भी है मेरा भी, सोच समझ कांटे बोना राहो में, आना जाना तेरा भी है मेरा भी"... सुनाया। मोहतरमा शाकिरा अस्मत की नज़्म... "दिल की गलियों में नई सुबह सजा दी जाये, बेल इशरत की हर एक गाम लगा दी जाये".. श्रोताओं को बहुत पसंद आई। इसके साथ ही मो. नदीमउल्लाह अब्बासी की नज्म..."कहीं जाता नहीं अब तेरे घर जाने के बाद, ज़ी मेरा लगता नही घर लौट आने के बाद, नाम चस्पा करके हो गया आज़ाद तू, मैं किसी का ना हो पाया तेरा कहलाने के बाद"... श्रोताओं के अंतस मन को छू गई।इसके पश्चात, आकाशवाणी गोरखपुर की कार्यक्रम प्रमुख डॉ. अनामिका श्रीवास्तव जी ने एक ग़ज़ल सुनाई... "क्यों छिपे हुए चलते हो, अच्छे दोस्त हो/हमसफ़र हो, साथ साथ चल सकते हो". अंत मे मो.फर्रुख जमाल ने... "दूर हो जाये तो तन्हाई का डर लगता है, हो मेरे साथ तो खुशबू का सफर लगता है"... सुनाई। निज़ामत मो. फर्रुख जमाल ने किया।
इस अवसर पर केंद्र की कार्यक्रम प्रमुख डॉ. अनामिका श्रीवास्तव जी ने कहा कि आकाशवाणी गोरखपुर समय समय पर साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करता रहा है, आज का यह मुशायरे का आयोजन उसी क्रम की एक कड़ी है। इस आयोजन को सफल बनाने में केंद्र के कार्यक्रम, अभियांत्रिकी और प्रशासनिक अनुभाग के कर्मचारियों का सहयोग रहा।

द्वारा योगदान :-अजीत कुमार राय, आकाशवाणी गोरखपुर,ajitrai17@gmail.com

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